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________________ १०४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ६.४१ एक्केकम्मि दहम्मि दु कमलाणि हवंति सयसहस्सं च । एगं चत्तसहस्सो सयं च तह सोलसा अहिया ॥ ४१ सत्तेव होति लक्खा छश्चैव सया य तह य वीसूणा । भवणाणि वि तावदियाँ णायन्त्रा होंति नियमेण ॥ ४२ सव्वेसु य कमलेसु य जिणवरपडिमा हति गायव्वा । वरपाडिहेरसहिया णाणामणिरयणसंपण्णा ॥ ४३ ताण दहाणं होत हु पुव्वेण य पच्छिमेर्णे पासेसु । दसदसकंचनसेला बहुविहमणिरयणपज्जलिया ॥ ४४ जोयणसयमुव्विद्धा पणुवीसं जोयणाणि उब्वेधो' । जंबूदीवे णेया कंचणणगपव्वदा रम्मा || ४५ मूले सयमेयं खलु पण्णत्तरि जोयणा य मज्झम्हि । पण्णासजोयणाहं सिहरितडे' वित्थडा सेला ॥ ४६ जरिथच्छसि विक्खभं कंचणसिहरादु भवदित्ताणं । सगकायविभत्तं सिरसहिदं जाण विक्खंभं ॥ ४७ कंचणणगाण या वेदीओ होति मूलसिहरेसु । वरतोरण णिहिडा णाणामणिरयणणित्रहाणि ॥ ४८ लाख चालीस हजार एक सौ सोलह कमल होते हैं [ १६००० + ३२००० + ४०००० + ४८००० + ७+ १०८ + ४००० + १ = १४१११६ ] ॥ ४१ ॥ [ उक्त पांचों द्रहोंमें ] सात लाख और बीस कम छह सौ अर्थात् पांच सौ अस्सी कमल [ १४०११६x ५=७००५८० और उतने ही भवन भी जानना चाहिये ॥ ४२ ॥ सब ही कमलोंपर उत्तम प्रतिहार्योंसे सहित और नाना मणियों एवं रत्नोंसे सम्पन्न जिनेन्द्रप्रतिमायें होती हैं ॥ ४३ ॥ उन द्रहोंके पूर्व और पश्चिम पार्श्वभागों में बहुत प्रकारके मणियों एवं रत्नोंसे प्रज्वलित दश दश कंचन शैल स्थित है ॥ ४४ ॥ जम्बूद्वीपमें स्थित रमणीय कंचन पर्वत सौ योजन ऊंचे और पच्चीस योजन प्रमाण अवगाहसे युक्त है ॥ ४५ ॥ उक्त शैल निश्चयसे मूलमें एक सौ योजन मध्यमें पचत्तर योजन और शिखरतलपर पचास योजन प्रमाण विस्तृत हैं ॥ ४६ ॥ कंचन पर्वतके शिखर से नीचे उतर जितने योजन जाकर विस्तार के जानने की इच्छा हो उतने योजनोंको अपनी काय ( उंचाई ) से विभक्त करके [ फिर इच्छासे गुणित करनेपर ] जो लब्ध हो उसमें शिर ( शिखर विस्तार ) को मिला देनेपर प्राप्त राशि प्रमाण अभीष्ट विस्तार जानना चाहिये ॥ ४७ ॥ उदाहरण - यदि कंचन शैलके शिखर से ५० यो. नीचे जाकर विस्तार जानना अभीष्ट है तो वह इस प्रक्रिया से जाना जा सकता है× ५० + ५० = ७५ यो. । ५० कंचन पर्वतोंके मूलमें और शिखरपर वेदियां तथा नाना मणियों एवं रत्नोंके समूह से संयुक्त उत्तम तोरण निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये ॥ ४८ ॥ कंचन शैलोंके शिखरोंपर १ उश एवं चत्तसहस्सा, प..., व एगं च तह सहस्सा २ उश भवणाण. ३ प ब ताविदिया. ४ उ श पच्छिमेसु ५ उ उम्रेधो, प ब उव्विद्धो, श उव्वध्यो. ६ उ श तडे ७ उश सिहराव उवदित्ताणं, प सेहरादिउवत्रण हित्ताणं, व सिहरादिउववदित्ताणं. ८ उ तोरणा णिदिट्ठा, प ब तोरणा णिद्दिद्वा, श तोरणा दिणिहा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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