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________________ -५.५८ छट्ठो उद्देसो कल्पतरूपंकुलानि य पासादा बलहितोरणादीणि । कंचणणगाण गेया सिहरेसु हवंति नगराणि ॥. वेसु नगरेसु राश कंदणदेवा हर्षनि णामेण । पलिदोवमाउगा ते दसवणुड गवरदेवा ॥ ५. पजतरयणमाला जाणामणिविष्फुरंतवरमा । केजरभूसिकरा मणिकुंडकमरियागंडा ॥५१ . सेदारवत्तविण्हा सिंहासणसंठिया महासत्ता । बहुदेवदेविसहिया कंचलिहरेसु गिट्ठिा ॥ ५५ सम्वेसु जगेसुतहा कंचणणामेसु रयणणिवहेसु । जिणभवणा णिहिट्ठा मणितोरणमंडिया रम्मा ॥ ५॥ पुवंतपयवाया जाणाकुसुमोवहारकयसोहा । जिगसिद्धविरणित्रहा बहुकोदुगमंगळसणारा || ५. सीदा वि दक्खिण य दहाण मनोग वेण गंतूर्ण । पुरवि पुश्वामिमुहा गुहामु मालतस्स ॥ ५५ पविसित्ता नासरिदा विदेहमोग वह पुणो जाइ । पुरवसमुरं पविसह तोरणदारण (म्मेण ॥ ५॥ उत्तरकुम्मिमा होह महारयणमाकमिरिमो । उत्तरपुम्वदिसाए मेस्स सुदंसमो जन्॥. पंचत्र जोयणसया विसंमायाम कणयमयी । बारहबायणबहरू मम्मे दो कोसा५. करावृक्षोसे व्याप्त और प्रासाद, वलभी एवं तोरणादिकोंसे सहित नगर में ऐसा जानना चाहिये ॥ १९ ॥ उन नगरों में अधिपति स्वरूप जो कंचन देव है.पत्यापम प्रमाण आयुके धारक और दश धनुष उन्नत उत्तम देहसे संयुक्त होते हैं ॥ ५० ॥ कंचनशिखरोंपर स्थित उक्त देव चमकती हुई रत्नमालाओंसे सहित, नाना मणियोंसे प्रकाशमान उत्तम मुकुटसे विभूषित, केयूरोसे भूषित हाथोंवाले, मणिमय कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंके धारक, अधिपतित्वके चिह स्वरूप धवल आतपत्रसे संयुक्त, सिंहासनोपर स्थित, महाबलवान् , बार बहुत देव-देवियोंसे सहित कहे गये हैं ॥ ५१-५२ ॥ रत्नसमूहसे संयुक्त उन कंचन नामक सब पर्वतोपर मणिमय तोरणोंसे मण्डित रमणीय जिनभवन निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ ५३॥ ये जिनभवन फहराती हुई वजा-पताकाओंसे सहित, नाना कुसुमोके उपहारसे की गई शोभासे संयुक्त, जिनों व सिद्धोंके बिम्बसमूहसे युक्त, और बहुत कौतुक एवं मंगळसे सनाथ हैं ॥ ५५ ॥ सीता नदी भी द्रहोंके मध्यमसे दक्षिणकी और जाकर फिर पूर्वाभिमुख होती हुई मात्यवंत पर्वतकी गुफाके मुखमें प्रविष्ट होकर बाहिर निकलती हुई विदेके मध्यसे जाती है व रमणीय तोरणद्वारसे पूर्व समुदमें प्रवेश करती है ॥५५-५६ ॥ उत्सरकुरुके मध्यमें मेहके उत्तर-पूर्व (ईशान ) दिशामें महा रत्नों के समूहसे पिंजरित सुदर्शन नामक जम्बू वृक्ष है ॥ ५७ ॥ पांच सौ योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयामसे सहित, मध्यमें बारह योजन व अन्तमें दो कोश बाहत्यसे संयुक्त, उत्तम वेदिकाओंसे युक्त, मणिमय उत्तम पर बला. २१श गणेसु. १ उशतरपुरसिमेन य. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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