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-३. २३.]
तदिओ उद्देसो
सव्वाण भूहराणं वणवेदी तोरणा मुणेयम्चा । देवणगराण वितहा वणसंहाणं तहा चेय ॥ १२६ सम्वेस भूहरेस य सरवरणगरेस उववणवणेस । जिणभवणा गायनानिद्रिा जिणवरिदेहि। २२७ हिमवंतस्स दुमूले जा जीवा उत्तरेण णिट्रिा । हेमवदस्स य सा खलु दक्खिणजीवा' वियाणाहि ॥ २१८ हिमवंतमहंतस्स दुजा जीवा दक्खिणेण णिहिट्ठा । हेमवदस्य सा खलु उत्तरजीवा वियाणाहि ॥ १२९ दिमवंतमहंतस्स दुजा जीवा उत्तरेण णिहिट्ठा। हरिवंसस्स दुसा खलु दक्खिणजीवा वियामहि ॥ २३. णिसधगिरिस्स दुमूले जा जीवा दक्खिगेण णिहिट्रा। हरिवंसस्स दुसा खलु उत्तरजीवा वियाणाहि॥ जह दक्षिणम्मि भागे तह चेव य उत्तरेसु णायवा। मायामा विक्र्खभा समासदोहोति सम्वाणं ॥ २१२ सोहम्मिदो सामी दक्षिणभागस्स होदि णिहिट्ठो। ईसाणिदो सामी उत्तरभागस्स दीवस्स ॥ २३१ हेरण्णवदे खेत्ते तहेव हेमन्वदम्मि सम्मि । सुस्समदुसमो कालो अवटिदो सम्बदा होइ ।। २३४ हरिवरिसम्मि य खेत्ते रम्मगर्वसम्मि होड णायचा । ससमो कालो एक्को भवट्रिदो सम्वकालं तु॥२१५ बे चउ चउ दुसहस्सा धणुप्पमाणा हवंति उच्छेहा। एगदुगविग्णिएगापल्लाऊ ते मुणेयम्वा ॥ २३६ जे कम्मभूमिमणुया दाणं दाऊण उत्तमे पत्ते । अणुमोदणेण तिरिया ते होंति इमासु भूमीसु ॥ २१०
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॥२२५॥ समस्त पर्वतों, देवनगरों तथा वनखण्डोंके वनवेदी और तोरण उसी प्रकार जानना चाहिये ।। २२६ ॥ सब पर्वत, श्रेष्ठ सुरपुर और वन-उपवनोंमें जिनेन्द्रों द्वारा निर्दिष्ट जिनमवन जानना चाहिये ॥ २२७ ॥ हिमवान् पर्वतके मूलमें जो उत्तरजीवा कही गई है वह निश्चयसे हैमवत क्षेत्रकी दक्षिणजीवा जानना चाहिये ॥ २२८॥ महाहिमवान् पर्वतकी जो दक्षिणजीवा कही गई है वह निश्चयसे हैमवत क्षेत्रको उत्तरजीवा समनना चाहिये ॥ २२९ ॥ महाहिमवान् पर्वतकी जो उत्तरजीवा निर्दिष्ट की गई है वह निश्चयतः हरिवर्ष क्षेत्रकी दक्षिणजीवा जानना चाहिये ॥ २३० ।। निषधगिरिके मूलमें जो दक्षिणजीवा कही गई है वह निश्चयतः हरिवर्षकी उत्तरजीवा जानना चाहिये ॥२३१॥ जिस प्रकार दक्षिण भागमें क्षेत्रों व पर्वतोंका संक्षेपसे आयाम व विस्तार बतलाया गया है उसी प्रकार उत्तर भागोंमें भी सब क्षेत्रों व पर्वतोंका भायाम व विस्तार जानना चाहिये ॥२३२॥ द्वीपके दक्षिण भागका स्वामी सौधर्म इन्द्र और उत्तर भागका स्वामी ईशान इन्द्र कहा गया है ॥ २३३ ॥ हैरपक्त क्षेत्रमें तथा हैमवत क्षेत्रमें सर्वदा सुषमदुषमा काल अवस्थित हैं ॥ २३४ ॥ हरिवर्ष क्षेत्रमें और रम्यक क्षेत्रमें सर्वदा एक सुषमाकाल अवस्थित है [ देवकुरुमें सदा सुषमसुषमा काल अवस्थित है ] ॥२३५॥ [ हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक और हरण्यक्त क्षेत्रोंमें ] शरीरकी उंचाई क्रमश दो हजार, चार हजार, चार हजार और दो हजार धनुष प्रमाण तथा आयु एक, दो, दो और एक पल्य प्रमाण जानना चाहिये ।। २३६ ॥ जो कर्मभूमिज मनुष्य हैं वे उत्तम पात्रको दान देकर तथा जो कर्मभूमिज तिथंच हैं वे दानदाताकी अनुमोदनासे इन क्षेत्रोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २३७ ॥ वहां मरणको मी
१ उघ उत्तरीवा. २५ व श प्रतिषु २२९ तमगाचाया उत्तराई २३० तागाधायाम पूर्वा नोपलम्पो. शपणि.
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