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________________ ५६ ] जम्बूदीवपण्णत्ती [ ३. कालगदा विय संता विमाणवासेसु ताण उत्पत्ती । ण य अण्णत्थुष्पत्ती भकालमरणेहि ण मं ॥ २३८ मज्जवरतूरभूसणजोदिसगिद्दभायणाण कप्पदुमा । भायणपदीववत्था दुमाण विहवंति दस भैया ॥ २३९ बहुविद्दमणिकिरणाद्दयषणतिमिर जलं ततुंगवर मउडा । सरसमग्रघणविणिग्गयर विभासुरकुंडला भरणा ॥ २४० • समय जणि मासु र विज्जुज्जलतेय मे हलकलावा | बद्दलघणपं कैवियलिय संसिधवल पलंबवरद्वारा || २४१ मरगयर विणिग्गयकिरणसमुच्छलय मे रुगिरिधीरा । परिइण्णरयण बहुविद्दसागरगंभीर मज्जाया ॥ २४२ पगलंतदाणणिज्झर भूद्दरसमस रसैमत्तगयगमणा । तरुणस सिधवलखरणहैकरिदारणसीद्दविक्कंता || २४३ मियमय कप्पूरारुहरियंदणबहलपरिमलामोया । णाणागुणगणकलिया दाणफला भोगसंपर्णा ॥ ६४४ हलमुसलकलसचामरर विससिभवणादिलक्खणोवेदा । दीसंति पवरपुरिसा सब्वासु नि भोगभूमीसु ॥ २४५ अइसय असे वणिवई अट्टमहापाडिद्देरसंजुत्तं । वरपठमणंदिणमियं अभिनंदणजिणवरं वंदे ॥ २४६ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंग पव्त्रदणदी भोगभूमिवण्णणो णाम सदिलो उद्देसो समत्तो ॥ ३ ॥ होती है, अन्यत्र उनकी उत्पत्ति प्राप्त होनेपर उनकी उत्पत्ति विमानवासी देवों में सम्भव नहीं है । तथा वे अकालमरणोंसे नहीं मरते हैं ॥ २३८ ॥ वहां मद्यांग, उत्तम तुयोग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, भोजनांग, प्रदीपांग और वस्त्रांग, इस प्रकार दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं ॥ २३९ ॥ इन सभी भोगभूमियोंमें उत्पन्न हुए पुरुष बहुत प्रकारके मणियों की किरणोंसे सघन अन्धकारको नष्ट करनेवाले चमकते हुए उन्नत उत्तम मुकुटको धारण करनेवाले, शरत्कालीन मेघोंसे निकले हुए सूर्य के समान देदीप्यमान कुण्डलोंसे भूषित, वर्षाकालमें उत्पन्न हुई प्रकाशमान बिजली के समान उज्ज्वल तेजवाले मेखलाकलापले संयुक्त, सान्द्र घन ( बादल ) रूपी पंकसे रहित चन्द्र के समान धवल लम्बे उत्तम हारसे सुशोभित, मरकत रत्नों से निकली हुई किरणोंसे विस्तारको प्राप्त हुए मेरु पर्वत के समान धैर्यशाली, बहुत प्रकार के रत्नोंसे व्याप्त सागरके समान गम्भीर मर्यादावाले, बहते हुए मदरूपी झरने से युक्त होकर पर्वतकी उपमाको धारण करनेवाले सरस मत्त गजके समान गमन करनेवाळे, तरुण चन्द्रके समान धवल तीक्ष्ण नखें|प्ते हाथीको विदारण करनेवाले सिंहके समान पराक्रमके धारक, मृगमद ( कस्तूरी ), कपूर, अगरु और हरित् चन्दनके समान सघन परिमल से सुगन्धित, नाना गुणगणोंसे सहित, दानफलके आभोगों से सम्पन्न; तथा इल, मूसल, कलश, चामर, सूर्य, चन्द्र और भवन आदि रूप चिह्नों से युक्त दिखते हैं ।। २४०-२४५ ॥ समस्त अतिशयोंके समूइसे सहित, आठ मद्दा प्रातिहार्यो से संयुक्त, और पद्मनन्दिसे नमस्कृत, ऐसे अभिनन्दन जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २४६ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति संग्रह में पर्वत, नदी व भोगभूमि वर्णन नामक तृतीय उद्देश समाप्त हुआ ॥ ३॥ १ प ब द्रुमाण हवंत. २ उ प ब जाणिय, ३ उपणिहर ६ प ब संपुण्णा. Jain Education International FFI For Private & Personal Use Only .08 1 www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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