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________________ -२. ११४ ] बिदिओ उद्देसो [२१ तेदाला सत्तसया दसय सहस्साणि पुण्णरस भागा । किंचिविसेसेणधिया उत्तरभरहस्त धणुपद्वं ।। १०४. जोयणसद्धि पणासा वित्थडा समुद्दिद्वा । वसहगिरिणामधेया कंचनमणिरयणपरिणामा ॥ १०५ वणवेदियपरिखित्ता गागाविहतोरणेहि कयसोहा । उज्जाणभवणणिवा जिणचेइयमंडिया रम्मा ॥ १०६ चक्करमाणमहणा णाणाचक्कीण णामसंछण्णा । उत्तरभरहद्धेसु य मज्झिमखंडेसु ते होंति ॥ १०७ भरस्स जहा दियौ तव एरावयस्स बोधव्वा । सोर्सि खेत्ताणं एसेव कमो मुणेो ॥ १०८ जह खेत्ताणं दिट्ठा दीवाणं तह य होइ विष्णेया । वेदीणदीणगाणं वंसाणं वण्णणा तह ये ॥ १०९ सव्वभरहाण या मज्झिमखंडेसु कालसमयाणि । छच्चे होंति दिव्वा तहेव एरावदाणं तु ॥ ११० सुसमसुसमा य सुसमा सुस्समदुसमा य होंति णिहिद्वा । दुस्समसुसमा दुसमा दुस्समदुसमा य विष्णेया ॥ १११ चत्तारि सागरोवमको डाकोडी हवंति णिद्दिष्ठा । सुसमसुसमा य कालो बोद्धव्त्रो' आणुपुव्वीर्य ॥ ११२ सुसमा तिण्णेव हवे सुस्समदुसमा य विग्णि णिद्दिट्ठा | दुस्समसुसमा एक्का बादालसहस्सवरिसूणा ॥ ११३ दुस्समकालो ओ इगिवीससहस्स हवइ परिसंखा । दुस्समदुसमस्स तहा इगिवीससहस्सवासाणं ॥ ११४ उत्तर भरत ( विजयार्ध) का धनुषपृष्ठ दश हजार सात सौ तेतालीस योजन और पन्द्रह भागोंसे (१०७४३३५ ) कुछ अधिक है ॥ १०४ ॥ उत्तर भरतार्धो में मध्यम खण्डोंके भीतर सौ योजन ऊंचे, पचास योजन विस्तृत; सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंके परिणामरूप; वनवेदी से वेष्टित, नाना प्रकार के तोरणोंसे शोभायमान, उद्यानों एवं भवनोंके समूहसे सहित, जिनचैत्योंसे मण्डित, चक्रवर्तियों के अभिमानको नष्ट करनेवाले, और नाना चक्रवर्तियों के नामोंसे व्याप्त वृषभ गिरि नामक रमणीय पर्वत हैं ।। १०५-१०७ ।। जैसे भरत क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही ऐरावतकी भी जानना चाहिये । शेष सब क्षेत्रोंका यही क्रम समझना चाहिये । अर्थात् ऐरावतका वर्णन भरतके समान, हैरण्यवतका वर्णन हैमवतके समान, रम्यकका वर्णन हरिके समान, तथा उत्तरकुरुका वर्णन देवकुहके समान है ॥ १०८ ॥ जिस प्रकारसे जम्बूद्वीपादिक द्वीपों के क्षेत्रोंका वर्णन किया गया है उसी प्रकार वेदी, नदी, पर्वत और क्षेत्रोंका भी वर्णन जानना चाहिये ॥ १०९ ॥ सत्र भरतक्षेत्रोंके मध्यम खण्डोंमें छह ही कालसमय जानना चाहिये। उसी प्रकार ऐरावत क्षेत्रोंके मध्यम खण्डों में भी दिव्य छह ही काल होते हैं ॥ ११० ॥ सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा, दुषमसुषमा, दुषमा और दुषमसुषमा, ये उन छह कालोंके नाम जानना चाहिये ॥ १११ ॥ अनुक्रमसे सुषमसुषमा काल चार कोड़ाकोडी सागरोपम, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुषमदुषमा दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुषमसुषमा ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुषमा काल इक्कीस हजार वर्ष तथा दुषमदुषमा काल भी इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण जानना चाहिये ॥ ११२-११४ ॥ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी इन दोनोंमेंसे एक १ उशप तेदाल. २ ब उछिद्धा. ३ प ब प्रत्योः १०८ तमगाथाया द्वितीय तृतीय चतुर्थचरणानि, १०९तमगाथायाश्च प्रथमचरणं नोपलभ्यते । ४ उ सव्वेसे, श प्रतौ त्रुटितं जातमेतत् ५ उशया. ६ उ श छवेव. ७ ब वहंति ८ उ प व श बोधव्वा. ९ उश आणुपुवीणा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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