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२२] जंबूदीवपण्णत्ती
[२. ११५सायरकोडाकोटी दससंगुण एककालपरिसंखा । उक्सप्पिणि अवसप्पिणि विणि विपीसा हवे कम्पो ॥११५ सम्वविदेहेसु तहा सबरपुलिंदाण पंचखंडेसु । एको चउत्थसमओ विज्जाहरसव्वणसु ॥ ११६ उत्तरकुल्सु पदमो कालो सब्वेसु हका णिदिहो । हेमवदेसु य तदिओ तहेव हेरण्णवासेसु ॥ ११७ हरिरम्मगवरिससे य विदिओ कालो जिणेहि पण्णत्तो । सव्वाणं खेत्ताणं एसेव कमो मुणेयम्वो ॥ ११८ पदमम्मि कालसमए छच्छेवै य धणुसहस्सउत्तुंगा । तिण्णिपलिदोवमाऊ गराण णारीण बोदवा ॥ ११९ जमलजमला पसूया वरलक्खणवंजणेहि संजुत्ता। बदरपमाणाहारा अहमभत्तेहि पारिति ॥ १२० बिदियम्मि कालसमये चत्वारिसहस्स होंति चावाणि । वे पलिदोवम आऊ मणुयाणं दिव्वरूवाणं ।। १२१ हरडाफलपरिमाणं आहारं दिव्वसादसंपण्णं । छठमभत्तण गरा भुंजंति य सादुकलिदाणि ॥ १२२ तदियम्मि कालसमये बे चेव सहस्स होति चावाणिं । आमलपमाणहारा चउत्थभत्तेण पारिति ॥ १२३ मरणारिगणा तइया उत्तमरूवा कसायपरिहीणा । वरवइरसुसंघडणा पलिदोवमाउगा सव्वे ॥ १२४
कालका प्रमाण दशसे गुणित एक कोडाकोड़ी सागर अर्थात् दश कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। इन दोनोंको मिलाकर बीस कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण एक कल्प होता है ॥ ११५ ॥ सब विदेहोंमें, शबर व पुलिन्दों ( म्लेच्छों ) के पांच खण्डोंमें, तथा विद्याधरोंके सब नगरोंमें एक चतुर्थ काल रहता है ॥ ११६ ॥ सब उत्तरकुरुओंमें प्रथम काल तथा हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रोंमें तृतीय काल निर्दिष्ट किया गया है ॥ ११७॥ हरिवर्ष और रम्यक वर्षों में जिन भगवान्के द्वारा द्वितीय काल कहा गया है। [ अढाई द्वीपोंके ] सब क्षेत्रोंका यही क्रम समझना चाहिये ॥ ११८॥ पहिले कालके समयमें नर-नारियोंकी उंचाई छह हजार धनुष और आयु तीन पल्योपम प्रमाण जानना चाहिये ।। ११९ ॥ इस कालमें युगल युगल स्वरूपसे उत्पन्न, उत्तम लक्षण व व्यंजनोंसे सहित, और बेरके बराबर आहार करनेवाले नर-नारी अष्टमभक्तसे अर्थात् तीन दिनके अन्तरसे भोजन करते हैं ॥ १२० ॥ द्वितीय कालके समयमें दिव्य रूपवाले मनुष्योंकी उंचाई चार हजार धनुष और आयु दो पल्योपम प्रमाण होती है ॥ १२१॥ इस कालमें मनुष्य हरड फलके बराबर दिव्य स्वादसे संपन्न आहारको षष्ठभक्त अर्थात् दो दिनके अन्तरसे ग्रहण करते हैं ॥ १२२ ॥ तृतीय कालके समयमें शरीरकी उंचाई दो हजार धनुष होती है। आंवलेके बराबर आहार करनेवाले मनुष्य वहां चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिनके अन्तरसे भोजन करते हैं ।। १२३ ।। उस समय नर-नारियोंके सब समूह उत्तम रूपसे सहित, कार्योसे रहित, उत्तम वज्रमय शुभ संहनन अर्थात् वज्रर्षभनाराचसंहननसे युक्त और पल्योपम प्रमाण आयुके धारक होते हैं ॥ १२४ ॥ इन तीनों ही कालोंमें मनुष्योंके पूर्वकृत पुण्य कर्मोके
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१प ब कप्पे. २ उ श वरसेसु. ३ उ कालसमपछच्चेव, ब कालसमयछच्चेव, श समपत्थञ्चेव. ४ उ साधु, ब साहु, श साधु.
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