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________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना । (१) इनमें गाथा ४- ३४ बृहत् क्षेत्रसमास (१-७) में भी इसी रूपमें पायी जाती है। (२) गा. १३-३५ ज्योतिष्करण्डमें (गा. ७८ ) भी पायी जाती है। वहां इसके चतुर्थ चरणमें 'पल्लं ' के स्थानमें 'जान' पद पाया जाता है । (३) गाथा १३ - ३६ सर्वार्थसिद्धि (३-३८) में उद्धृत पायी जाती है ' (४) गा. १३ - ३७ त्रिलोकसारमें कुछ परिवर्तित रूपमें है जो इस प्रकार हैसत्तमजम्मावीणं सत्तदिणन्भंतरहि गहिदेहिं । सहं सणिचिदं भरिदं बालग्गकोडी हिं ॥ ९४ ॥ यही गाथा जंबूदीवपण्णत्तीसे बहुत कुछ समानता रखती हुई ज्योतिष्करण्डमें भी इस प्रकार उपलब्ध होती है होती है एकाहिय- बेहिय-तेहियाण उक्कोससत्तरत्ताणं । सम्म सन्निचियं भरियं बालग्गकोडीणं ॥ ७९ ॥ यहां टीकाकार श्री मलयगिरिने एकाहिक आदि पदका अर्थ इस प्रकार किया है- मुण्डित शिरसि या एकेनाहा प्ररूदास्ता एकाहिकाः, या द्वाम्यामहोम्यां ता द्वयाहिका यास्त्रिभिरहोभिस्ताख्याहिकाः । ' सम्म ' का अर्थ ' संमृष्ट- आकर्णमृतम् ' किया है। (५) गा. १३ - ३८ त्रिलोकसारमें कुछ परिवर्तित रूपमें है वस्ससदे वस्ससदे एक्केक्के अवहिदम्हि जो कालो । तक्कालसमयसंखा णेया ववहारपल्लस्स ॥ ९९ ॥ यही गाथा जंबूदीव पण्णत्तीसे कुछ थोडे ही परिवर्तन के साथ ज्योतिष्करण्डमें इस प्रकार उपलब्ध १२९ वाससए वाससए एक्केके अवहियंमि जो कालो । सो कालो नायव्वो उवमा एक्कस्स पलस्स ॥ ८१ ॥ (६) गा. १३, ३९-४० त्रिलोकसारमें कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ इस प्रकार पायी जाती हैं जिससे पस्यविषयक मान्यता भेद भी सूचित होता है- Jain Education International ववहारेयं रोमं छिष्णमसंखेनवाससमयेहिं । उद्धारे ते रोमा तक्कालो तत्तियो चैव ॥ १०० ॥ उद्धारेयं रोमं छिण्ण मसंखेज्जवाससमयेहिं । अद्धारे ते रोमा तत्तियमेत्तो य तक्कालो ॥ १०१ ॥ (७) गा. १३ -४१ ज्योतिष्करण्ड (गा. २) में भी पायी जाती है। जंबूदीवपण्णत्तीमें इसका अन्तिम चरण है- उवमा एक्कस्स परिमाणं । इसके स्थान में त्रिलोकसारमें 'हवेज एकस्स परिमाणं ' और ज्योतिष्करण्डमें 4 एकस्स भवे परीमाणं' है। ये दोनों पाठ संगत हैं, परन्तु जं. प. में प्रयुक्त ' उवमा' पद पुनरुक्त E (८) गा. १३ -४३ मूलाचार (१२-८५ ) में भी पायी जाती है। (९) गा. ६-११ वृहत्क्षेत्रसमास (१ - ४१) मैं भी यत्किंचित् शब्दपरिवर्तन के साथ पायी जाती है। ४ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र - उक्त नामसे प्रसिद्ध एक ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी विद्यमान चवां उपांग ग्रन्थ माना जाता है। यहां सर्वप्रथम मंगल के रूपमें पंचनमस्कार मंत्र प्राप्त होता है । तत्पश्चात् । यह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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