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________________ १२८ जंबूदीव पण्णत्तिकी रचनाके समय उसके कर्ताने किन ग्रन्थोंका उपयोग किया है, यह निश्चित रूप से नहीं बतलाया जा सकता है। तथापि जिन प्राचीन ग्रंथोंसे उसका कुछ साम्य व वैषम्य दिखाई देता है वे निम्न प्रकार हैं १ तिलोयपण्णत्ती- यह जैन भूगोल विषयक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है और सम्भवतः वर्तमानमें उपलब्ध इस विषय के सब ग्रन्थोंमें प्राचीनतम भी है । इसका प्रकाशन इसी ग्रन्थमालासे २ भागों में हो चुका है । जंबूदीवपण्णत्तीकी रचनाके समय यह ग्रन्थ उसके रचयिताके सामने रहा है और उसका उपयोग भी खूब किया गया है । तुलनात्मक दृष्टिसे इन दोनों ग्रन्थोंके विषयमें तिलोयपण्णत्तीकी प्रस्तावनामै ( देखिये भा. २, प्रस्तावना पृ. ६८-७३ ) बहुत कुछ लिखा जा चुका है। वहां तिलोयपण्णत्तीकी ऐसी कितनी ही गाथाओंका उल्लेख कर दिया गया है जिन्हें मुनि पद्मनन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थमै विना किसी परिवर्तनके अथवा यत्किंचित् परिवर्तन के साथ ले लिया है। वहां निर्दिष्ट गाथाओंके अतिरिक्त जंबूदीवपण्णत्तीकी और भी निम्न गाथाओंका क्रमसे तिलोयपण्णत्तीकी निम्न गाथाओंसे मिलान किया जा सकता है जं. प. द्वितीय उद्देश - (१) ४०, (२) ४१, (३) ९७, (४) १२०, (५) १४६, (६) १५२, (७) १५५, (८) १५६, (९) १९९, (१०) २००, (११) २०१, (१२) चतुर्थ उ. ४५, (१३) ११३, (१४) ११४, (१५) २१३ से २१९, (१६) सातवां उ. १४८, (१७) तेरहवां उ. १६, (१८) २७. ति. प. चतुर्थ महाधिकार - (१) १२६, (२) १३९, (३) २४०, (४) ३३४, (५) ३६८, (६) ३७२, (७) ३३७, (८) ३३८, (९) १५१९, (१०) १५४१, (११) १५१८, (१२) १८१५(१३) २२७९, (१४) २२८०, (१५) आठवां म. २६० से २६६, (१६) चतुर्थ म. २६९, (१७) प्रथम म. ९८, (१८) १०९. २ मूलाचार - यह श्री बटुकेराचार्यविरचित मुनियोंके आचारका सांगोपांग वर्णन करनेवाला एक प्राचीन ग्रन्थ है । इसके पर्याप्तिसंग्रहिणी नामक १२ वे अधिकार में कुछ अन्य भी विविध विषयोंका संग्रह किया गया है ( देखिये ति प. २, प्रस्तावना . ४२ ) । इस अधिकारमें आयी हुई निम्न गाथायें जंबूदीवपण्णत्तीके कर्ता द्वारा सीधी इसी ग्रन्थसे अथवा पीछेके किसी अन्य ग्रन्थमें उद्धृत देखकर ली गयी हैं- जं. प. ११ १३७-३८, मूला १२ ७५-७६ जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना ४ अन्य ग्रंथोंसे तुलना जं. प. त्रि.सा. १३९ २१ ४, ३४ १३,३५ ९६ ९५ Jain Education International १४०-४१ १७८ ३५३ १०९-१० e ७८ ३ त्रिलोकसार - श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्तचक्रवर्तीके द्वारा विरचित यह एक भूगोल विषयक अनुपम ग्रन्थ है । इसकी रचना प्रौढ़ और अपने आपमें परिपूर्ण है । इसमें जैन भूभागसे सम्बद्ध प्रायः सभी विषयोंका समावेश है। यहां पूर्वपरम्परासे आई हुई तथा कितने ही पूर्वाचार्यो की भी सैकड़ों गाथाओंको इस प्रकारसे आत्मसात् कर लिया गया है कि उनकी पृथक्ताका बोध ही नहीं होता । जंबूदीवपण्णत्तीमें अनेक गाथायें ऐसी हैं जो ज्योंकी त्यों या कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ त्रिलोकसारमें भी उपलब्ध होती हैं। उदाहरण स्वरूप ऐसी कुछ गाथायें ये हैं १३,३६ ९३ १३, ३७ ९४ १२,९५-९६ ८१-८२ १२, २८-४१ १३,४३ ६,७ ९९-१०२ ९२ ७६१ For Private & Personal Use Only १३-४३ ८५ ६, ११ ७६४ www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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