________________
विषय परिचय
१२७
मोह ये तीन दोष नहीं हैं वह असत्य भाषण नहीं करता है; इसीलिये उसका वचन प्रमाण है । वह प्रमाण दो प्रकारका है- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें प्रत्यक्ष भी सकल और विकलके भेदसे दो प्रकारका है । सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान और विकल प्रत्यक्ष अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वाधि तीन भेद अवधिज्ञानके तथा ऋजुमति मन:पर्यय और त्रिपुलमति मन:पर्यय ये दो भेद मन:पर्ययज्ञानके हैं । आगे परोक्ष भेदोंके अन्तर्गत आभिनिबोधिक ज्ञानके ३३६ भेदोका निर्देश करते हुए अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाका स्वरूप उदाहरण देकर इस प्रकार बतलाया है- 'देवदत्त' इस प्रकार सुनकर विचार रहित जो सामान्य ज्ञान होता है वह अवग्रह है । हरि, हर और हिरण्यगर्भ इनके मध्य देव कौन है, इस प्रकारकी बुद्धिका नाम ईहाज्ञान है। जो कर्मकलपतासे रहित है वह देव है, इस प्रकारकी बुद्धिको अवाय कहा जाता है। राग-द्वेष रहित सर्वशका कभी विस्मरण न होना, यह धारणाज्ञान कहलाता है । अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रहके लक्षण बतलाया है कि इन्द्रिय और नोइन्द्रियके द्वारा दूरसे होनेवाले अर्थग्रहणको अर्थावग्रह तथा स्पर्शपूर्वक चक्षुके विना शेष चार इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले स्पर्श, रस, गन्ध एवं शब्द के ज्ञानको व्यंजनावग्रह कहते हैं । मतिपूर्वक जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे- धूमको देखकर अमिका ज्ञान अथवा नदीपूरको देखकर उपरिम वृष्टिका ज्ञान |
1
तत्पश्चात् क्षुधा तृषादिसे रहित देवका कीर्तन करते हुए यहां अरहन्त परमेष्ठीके ३४ अतिशयों, देवपरिगृहीत ८ आठ मंगल द्रव्यों, ८ प्रतिहार्यों और ९ केवललब्धियोंका नामोल्लेख करके १८ हजार शीलों और ८४ हजार गुणों (देखिये पृ. २४९ का विशेषार्थ ) का भी निर्देश मात्र किया है ।
अन्तर्मे प्रस्तुत जंबूदीवपण्णत्तीका पराम्परागत सम्बन्ध अरहन्त परमेष्ठी से बतलाते हुए यह निर्देश किया है कि जिनमुखोद्गत परमागमके उपदेशक श्री विजय गुरु विख्यात हैं। उनके पास में जिनागमको सुनकर कुछ उद्देशोंमें यहां मैंने मनुष्य क्षेत्रके अन्तर्गत ४ इष्वाकार, ५ मंदर शैल, ५ शाल्मलि वृक्ष, ५ जंबू वृक्ष, २० यमक पर्वत, २० नाभिगिरि, २० देवारण्य, ३० भोगभूमियां, ३० कुलपर्वत, ४० दिग्गज पर्वत, ६० विभंग नदियां, ७० महानदियां, ३० पद्मद्रहादि, १०० वचार पर्वत, १७० वैताढ्य पर्वत, १७० ऋषभगिरि, १७० राजधानियां, १७० षट्खण्ड, ४५० कुण्ड और २२५० तोरण इत्यादि बहुतसे ज्ञातव्य विषयोंका वर्णन उक्त श्री विजय गुरुके प्रसादसे किया है । ग्रन्थ लिखनेका निमित्त बतलाते हुए यहां यह निर्दिष्ट किया है कि राग-द्वेषसे रहित व श्रुत सागरके पारगामी माघनन्दी गुरु प्रसिद्ध हैं । उनके शिष्य सिद्धान्त- महासमुद्रमै कपताको धो डालनेवाले गुणवान् सकलचन्द्र गुरु हुए हैं। उनके भी शिष्य निर्मल रत्नत्रयुके धारक श्री नन्दिगुरु विख्यात हैं। उन्हीं के निमित्त यह जंबूदीवपण्णत्ती लिखी गयी है ।
अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख करते हुए ग्रन्थकर्ता श्री पद्मनन्दी मुनि कहते हैं कि पांच महाव्रतोंके धारक, रत्नत्रय से पवित्र और पंचाचार परिपालक श्री वीरनन्दी नामके प्रसिद्ध ऋषि थे । उनके उत्तम शिष्य सूत्रार्थविचक्षण विख्यात बलनन्दी हुए । इनके भी शिष्य त्रिदण्डरहित, शल्यत्रयपरिशुद्ध, गारवत्रय से रहित, सिद्धान्त पारगामी और तप-नियम- योगसे संयुक्त पद्मनन्दी नामक ( प्रकृत ग्रन्थके कर्ता ) मुनि हुए । श्री विजय गुरुके समीपमें सुपरिशुद्ध आगमको सुनकर मुनि पद्मनन्दिने इस ग्रन्थको लिखा है ।
ग्रन्थरचना के स्थान और वहांके शासकका नामनिर्देश करते हुए यह बतलाया है कि वारां नगरका प्रभु नरोत्तम शक्ति भूपाल था जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध, व्रतकर्मको करनेवाला, निरन्तर दानशील, जिनशासन वत्सल, वीर, नरपतिसंपूजित और कलाओं में कुशल था । यह नगर धन-धान्यसे परिपूर्ण, सम्टष्टि और मुनि जनोंसे मण्डित, जिन भवन से विभूषित रमणीय पारियात्र देशके अन्तर्गत था ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org