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जंबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना
यहां ज्योतिषियंकि अवस्थानके कथनमें जो ९वीं गाथा आयी है वह सर्वार्थसिद्धि ( ४, १२ ) तथा तत्त्वार्थवार्तिक ( ४, १२, १०) में उद्धृत एक प्राचीन गाथा है । कुछ शब्दपरिवर्तनके साथ उक्त गाथा त्रिलोकसार ( ३३२ ) मैं उपलब्ध होती है। इसके आगे जो यहां २ गाथायें (९५-९६ ) आयुकी प्ररूपणा करनेवाली हैं वे मूलाचार ( १२, ८१-८२ ) और तिलोयपण्णत्ती ( ७,६१४-१५ ) में उपलब्ध होती हैं और सम्भवतः वहींसे यहां ली गयी हैं ।
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१३. तेरहवें उद्देशमें १७६ गाथायें हैं । सर्वप्रथम यहां कालके व्यवहार और परमार्थरूप दो भेदों का उल्लेख करके तत्पश्चात् समय व आवलिका आदि अचलात्म पर्यन्त व्यवहार कालके भेदोका निर्देश किया गया है । आगे चलकर परमाणुका स्वरूप बतलाते हुए उत्तरोत्तर अष्टगुणित अवसन्नासन्नादिके क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अंगुलके उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल ये तीन भेद बतलाये हैं। इनमेंसे प्रत्येक सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुलके भेदसे ३-३ प्रकारका है । ५०० उत्सेधांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है । परमाणु व अवसन्नासन्न आदिके क्रमसे जो अंगुल निष्पन्न होता है वह सूच्यंगुल कहलाता है । इसके प्रतरको प्रतरांगुल और घनको वनांगुल कहते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जिस जिस कालमें जो मनुष्य होते हैं. उनके अंगुलको आत्मांगुल कहा जाता है इनमें उत्सेधांगुलसे नर-नारक आदि जीवोंके शरीरकी उंचाईका प्रमाण बतलाया जाता है । कलश, झारी, दण्ड, धनुष, बाण, हल, मूसल, रथ, सिंहासन, छत्र, चमर और गृह आदिका प्रमाण आत्मांगुलकी अपेक्षा निर्दिष्ट होता है। प्रमाणांगुलके द्वारा दीप, समुद्र, नदी, कुण्ड, क्षेत्र, पर्वत और जिन भवन आदिके विस्तारादिका प्रमाण ज्ञात किया जाता है ।
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छह अंगुली का पाद, २ पादका वितस्ति, २ वितस्तिका हाथ, २ हार्थोका किष्कु, २ किष्कुओंका दण्ड या धनुष, २००० धनुषका कोस ( गव्यूति ) और ४ कोसका योजन होता है। एक प्रमाणयोजन विस्तृत और इतने ही गहरे गड्ढेको पल्य कहा जाता है । इसे एक दिनसे लेकर सात दिन तकके मैढ़के ऐसे रोमखण्डोंसे, जिनका कि दूसरा खण्ड न हो सके, सघन भरकर १००-१०० वर्ष में १-१ बालाग्रके निकालने में जितना काल व्यतीत होता है उतने कालको व्यवहारपल्योपम काल कहा जाता है । इसके प्रत्येक रोमखण्डको असंख्यात करोड़ वर्षोंके समयोंसे खण्डित करके एक एक समयमे १-१ रोमखण्डके निकालने पर जितने कालमें वह रिक्त होता है उतना एक उद्धार पल्योपम होता है । १० कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्योंका एक उद्धार सागरोम होता है । समस्त द्वीप समुद्रों की संख्या अढ़ाई उद्धार सागरोपमांके रोमखण्डों के बराबर है । उद्धार पत्रके रोमखण्डोंको १०० वर्षोंके समयोंसे खण्डित करके १-१ समयमै १-१ रोमखण्ड के निकालनेपर जितने कालमें वह रिक्त होता है उतने कालको अद्धा पल्योपम कहा जाता है । तिलोयपण्णत्ती ( १-१२९ ) और हरिवंश - पुराण ( ७-५३ ) में इन रोमखण्डों को भी असंख्यात करोड़ वर्षोंके समयोंसे खण्डित करनेका उल्लेख पाया जाता है । उपर्युक्त १० कोड़ाकोड़ी अद्धा पल्यों का एक अद्धा सागरोपम होता है । १० कोड़ाकोड़ि अद्धा सागरोपम प्रमाण एक अवसर्पिणी और उतना ही एक उत्सर्पिणी काल होता है । इस अद्धा पल्यके द्वारा चतुर्गतिके जीवोंकी कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति, और कायस्थितिका प्रमाण जाना जाता है ।
इसके पश्चात् यहां सर्वज्ञके साधनार्थ प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और अविरूद्ध आगम प्रमाणका निर्देश करते हुए धूमानुमानसे अनिका उदाहरण देकर (गा. १३-४५) यह बतलाया है कि जो सूक्ष्म, अन्तरित और दूरस्थ पदार्थोंको ज्ञानके द्वारा जानता है वह सर्वज्ञ है । इसके द्वारा “ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ " इस आप्तमीमांसागत कारिकाको लक्ष्यमें रखकर ग्रन्थकारने सर्वज्ञको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है । तत्पश्चात् वहां यह बतलाया है कि जिसके राग, द्वेष और
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