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________________ विषय परिचय १२५ भागे आगेके द्वीप-समुद्रोंके सूर्य-चन्द्रादिकोंकी संख्या होती है। उदाहरणार्थ धातकीखण्डमें १२ सूर्यचन्द्र हैं। अतः उससे आगेके कालोद समुद्रमें उनकी संख्या इस प्रकार होगी- १२४३३६; इसमें विगत अं. बी. और लवण स. की ६ संख्याको मिला देनेपर वह ३६+६=४२ हो जाती है । इसे तिगुणी करके विगत द्वीप-समुद्रोंकी संख्या मिला देनेपर वह आगे पुष्कराध द्वीपके सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या हो जाती है४२४३+ (१२+४+२) = १४४ ( उभय पुष्करार्धगत सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या ७२+७२ ) । परन्तु वलय स्वरूपसे इस संख्याकी व्यवस्था किस प्रकार होगी, इसका कुछ भी स्पष्टीकरण वहांपर नहीं किया गया है (इ.पु.६,२६-३३) । श्रुतसागर सूरिने अपनी तत्त्वार्थवत्तिमै मानुनोत्तर पर्वतके पूर्व में ज्योतिषियोंकी निश्चित संख्या बतला करके उसके आगे बाह्य पुष्कराध द्वीप और पुष्करवर समुद्र में उक्त संख्याको परमागमसे जान लेनेकी प्रेरणा की है। यथा- मानुषोत्तराद् बहिः पुष्कराद्धे पुष्करसमुद्रे च सूर्यादीनां संख्या परमागमाद् बेदितव्या (त. पू., पृ. १६०-६१)। इसके आगे प्रस्तत उद्देशमै गा.३३-९१ तक उक्त चन्द्र-सर्यादिकोंकी संख्याके लाने के क्रमका वर्णन है । परन्तु वहां कोई उदाहरण या अंकविन्यास आदिका संकेत नहीं है । इसका सुव्यवस्थित वर्णन श्री बीरसेनाचार्यने अपनी धवला टीका (देखिये पर्ख. पु. ४, पृ. १५०-१६०) में किया है। यहांका बहुतसा गद्यभाग (पृ. १५२-५८) तिलोयपण्णत्ती पृ. ७६४ से ७६६ में ज्योंका त्यों पाया जाता है। अन्तिम पंक्तियोंमें जो थोडासा शब्दभेद दोनों जगह पाया जाता है वह इस प्रकार है एसा तप्पाओग्गः ..... पमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिओवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारी जोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयमुत्तावलंबिजुत्तिवलेण पयदगच्छसाहणहमम्हेहि परूविदा प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भवलविज़ुभितगुणप्रतिपन्नप्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोपदेशवत् आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा । तदो ण एस्थ इदमित्थमेवेत्ति...... (पु. ४, पृ. १५७ )। एसा तप्पाओग्ग..... पमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरियउवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपणत्तिसुत्ताणुसारिणी, जोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयमुत्तावलंबिजुत्तिवलेण पयदगच्छसाधणहमेसा परूवणा पलविदा । तदो ण एत्थ इदमिस्थमेवेत्ति ....... (ति प. पृ. ७६६ )। तत्पश्चात् यहां ज्योतिषी देवोंके अवस्थान, आयु और विमानतलविस्तारका कुछ वर्णन करके यह बतलाया है कि ज्योतिषी देवोंकी जो जो संख्यायें जंबूद्वीपमें कही गयी हैं वे स्थिर ताराओंको छोड़कर दुगुणी दुगुणी जानना चाहिये (गा. १०४ ) । परन्तु ये संख्यायें दुगुणी दुगुणी कहां समझी जावें, इसका कुछ भी उस्लेख वहां नहीं है। आगे जंबूद्वीपमें स्थिर ताराओंकी ३६ संख्याका उल्लेख करके गा. १०६-८ में फिरसे भी जंबूद्वीपादिमें चन्द्रादिकोंकी उक्त संख्याका उल्लेख किया गया है। इससे हम यदि इस निष्कर्षपर पहुंचें कि प्रकृत ग्रन्थके कर्ताने इसमें न पुनरुक्तिका ध्यान रक्खा है और न पूर्वापर क्रमिक सम्बन्धका भी, तो यह अनुचित न होगा । अर्थबोध करानेके लिये आवश्यक शब्दोंकी जैसी सुसम्बद्ध रचना होनी चाहिये थी, उसे हम यहां नहीं पाते हैं। प्रकृत उद्देशमें ही जहां सबसे पहिले ज्योतिषी देवोंके भेद और उनके निवासस्थानादिका कथन किया जाना चाहिये था वहां उसका कुछ भी वर्णन न करके सबसे पहिले ८०० यो. ऊपर चन्द्रका अवस्थान बतलाया गया है। यह परम्परागत वर्णनशैलीके प्रतिकल है। यहां ज्योतिष पटलका वर्णन करने के लिये एक स्वतन्त्र उद्देशकी रचना करके भी ज्योतिषी देवोंके भेद, उनका पारिवारिक सम्बन्ध, उनके संचारका क्रम और नक्षत्रोंके नाम, इत्यादि उल्लेखनीय विषयों के सम्बन्धमें कुछ भी प्रकाश न डालकर एक मात्र चन्द्रोंकी संख्यामें ही उद्देशका अधिकांश भाग समाप्त कर देना कुछ आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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