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________________ १२४ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना (चय ) का ४ और गच्छका प्रमाण ८ है। एक कम गच्छके अर्ध भागको चयसे गुणित करके प्राप्त राशिम आदिको मिला दे और फिर उसे गच्छसे गुणित करे । इस नियमके अनुसार सर्वघनका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। जैसे- ४-१४४ + १४४ ४ ८ - १२६४ । यही क्रम शेष द्वीप-समुद्रोंो भी चन्द्रबिम्बों और सूर्यविम्बोंकी संख्या लाने में अभीष्ट है । विशेषता केवल इतनी है कि आदि (१४४ ) और गच्छ (८) के प्रमाणको उत्तरोत्तर दुगुणा करते जाना चाहिये। चयका प्रमाण सर्वत्र ४ ही रहता है। ___इसका अभिप्राय यह है कि मानुषोत्तर पर्वतके आगके द्वीप-समुद्रोंमें जिसका जितना विस्तारप्रमाण है उतने विस्तारमें १-१ लाख योजन जाकर ज्योतिषियोंका १-१ वलय है। इनमेंसे प्रथम वलयमें स्थित चन्द्रोंकी संख्या पूर्व द्वीप या समुद्र के प्रथम वलयसे दुगुणी होती है। आगे शेप वलयों में उत्तरोत्तर ४-४ चन्द्र अधिक होते जाते हैं । उदाहरणार्थ पुष्करवर समुद्रका विस्तार ३२ लाख यो. है, अत एव यहां वलयोंको संख्या ३२ है। इनमेंसे प्रथम वलयमै बाह्य पुष्कराध द्वीपके प्रथम वलयकी अपेक्षा दुगुणे (१४४ x २ = २८८) चन्द्र स्थित हैं। यही यहां आदिका प्रमाण है। गच्छ यहां ३२ है। अत एच पूर्वोक्त नियमके अनुसार क्रिया करनेपर यहांकी समस्त चन्द्रसंख्या इस प्रकार प्राप्त होती है ४४ + २८८४३२ = ११२००.. इसी प्रकरणमें २० वीं गाथा करणसूत्रके रूपमें आयी है। किन्तु पूर्व सम्बन्ध आदिकी सूचना न होनेसे उसका अभिप्राय ज्ञात नहीं हो सका है । इसके आगे ११ गाथाओंमें (२२-३२ ) पुष्करवर समुद्रसे लेकर नन्दीश्वर द्वीप तक प्रथम वलयस्थ चन्द्रोंकी संख्याका निर्देश किया गया है। परन्तु इसका सामान्य परिशान जब ‘णवरि विसेसो जणि आदिमगच्छा य दुगुगदुगुणा दु।' इस पूर्व गाथा (१९) के द्वारा ही करा दिया गया था तब फिर इन गाथाओंके रचनेकी क्यों आवश्यकता हुई, यह विचारणीय है। यही नहीं, किन्तु इसमें एक भूल भी हो गयी प्रतीत होती है। वह यह कि तिलोयपणत्ती (पृ. ७६१-६२), धवला (पु. ४, पृ. १५१) और त्रिलोकसार (३५०,३६०) में पुष्करवर समुद्रके प्रथम वलयमें २८८ तथा आगेके द्वीप समुद्रोंमें स्थित प्रथम वलयोंमें उत्तरोत्तर इससे दुगुणी चन्द्रसंख्या निर्दिष्ट की गयी है। किन्तु यहां वह संख्या १४४ और आगे उत्तरोत्तर 'इससे दुगुणी बतलायी है। यदि यह किसी भूलका परि. णाम नहीं है तो पूर्वापरविरुद्ध तो है ही। कारण कि पूर्वमें गा. १५-१९ द्वारा यही चन्द्रसंख्या बाह्य पुष्करार्धमें १४४ और आगेके द्वीप-समुद्रोंमें उत्तरोत्तर इससे दुगुणी दुगुणी बतलायी जा चुकी है। तत्त्वार्थवार्तिक और हरिवंशपुराणमें ज्योतिषी देवोंकी यह संख्या कुछ भिन्न रूपमें पायी जाती है। यथा-तत्त्वार्थवार्तिकमें अभ्यन्तर पुष्करार्धके समान बाह्य पुष्करा द्वीपमें भी सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या ७२ ही निर्दिछ की गयी है। आगे पुष्करवर समुद्र में उक्त सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषियोंकी वह संख्या इससे चौगुणी और फिर प-समुद्रोंमें उत्तरोत्तर इससे दुगुणी ही बतलायी गई है। यहां वलयक्रमानुसार उन ज्योतिषियोंकी संख्याका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। जैसे- बाह्ये पुष्कराद्धे च ज्योतिषामियमेव संख्या। ततश्चतुर्गुणा पुष्करवरोदे। ततः परा द्विगुणा द्विगुणा ज्योतिषां संख्या अवसेया (त. वा. . २२०)। परन्तु हरिवंशपुराणमें तत्त्वार्थवार्तिकके समान दोनों पुष्कराधों में ७२-७२ सूर्य-चन्द्रोंका उल्लेख करके भी तिलोयपण्यत्ती आदिके समान बाह्य पुष्करार्धमें मानुषोत्तर पर्वतसे ५० हजार योजन आगे जाकर चक्रवाल (वलय) स्वरूपसे सूर्यचन्द्रादिकोंके अवस्थानका संकेत किया गया है। उसके आगे १-१ लाख योजन जाकर उनके उत्तरोत्तर ४-४ अधिक होते जानेका भी उल्लेख वहां पाया जाता है। तत्पश्चात वहां यह बतलाया है कि धातकीखण्ड द्वीप आदिमें जो सूर्य-चन्द्रादिकी निश्चित संख्या है उसे तिगुणी करके विगत द्वीप-समुद्रों की संख्याको मिलानेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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