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________________ विषय परिचय १२३ और उसके निकालनेकी रीति आदिका कथन भी प्रस्तुत मान्यताके ही अनुसार विस्तारसे पाया जाता है। तत्पश्चात् वहां 'जे सोलस कप्पाइं केई इच्छंति ताण उवएसे' (८-१७८ ) इत्यादि कहकर विमानोंकी समस्त संख्याका उल्लेख १६ कल्पोंकी मान्यताके अनुसार भी किया गया है (८, १७८-१८५)। इसके मात् फिर भी वहां संख्यात व असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान, उनका बाहल्य, वर्णभेद और आधारविशेष आदिका समस्त कथन १२ कल्पोकी मान्यताके अनुसार ही किया गया है। इससे निश्चित होता है कि तिलोयपणत्तिकारको यही मान्यता इष्ट रही है। इसके विपरीत सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक और- हरिवंशपुराग आदिके रचयिताओने १६ कल्पोंकी मान्यताको अभीष्ट मानकर तदनुसार ही अपने अपने ग्रन्थों में इन कल्पोका वर्णन किया है। यहां तत्त्वार्थवार्तिक १४, १९, ८) में एक विशेषता और भी देखनेमें आती है, वह है १४ इन्द्रोंकी मान्यता । यही मान्यता महाकलंक देवको इष्ट भी रही है । इसीलिये उन्होंने "त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेन्द्रा उक्ताः, द्वादश इष्यन्ते..." इत्यादि उल्लेख भी कर दिया है। इस मान्यताका अनुसरण श्री श्रुतसागर सूरिने हमी अपनी तत्त्वार्थवृत्तिमें किया है। किन्तु यह अभिमत किस लोकानुयोग ग्रन्थमें रहा है, यह अभी देखने में नहीं आया है । उपर्युक्त मान्यताके अनुसार वे १४ इन्द्र ये हैं---- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्म, प्रयोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आरण और अच्युत । तिलोयपण्णत्ती ( म. ५, गाथा ८४-९७ ) में अष्टाहिक पूजामहोत्सवके निमित्त नन्दीश्वर द्वीपको जानेवाले इन्द्रोंका निर्देश करते हुए भी यद्यपि १४ इन्द्रोंका ही नामोल्लेख किया है, किन्तु ये १४ इन्द्र उपर्युक्त १४ इन्द्रोंसे भिन्न हैं--- यहां आनतेन्द्र और प्राणतेन्द्रका तो नामोल्लेख है, किन्तु लान्तवेन्द्र और कापिष्ठन्द्रका नामनिर्देश नहीं है। यह भी सम्भव है कि वहां इन दो इन्द्रोंके नामोंका उल्लेख करनेवाली गाथायें प्रतियोंमें छूट गयी हों। प्रकत जंबूद्वीपपण्णत्तीमें भी एक ऐसा ही प्रकरण है। यहां ( ५, ९३-१०८) अष्टाहिक पर्वमें पूजाके निमित्त महा विभूतिके साथ मन्दर पर्वतस्थ जिनभवनोंमें आते हुए इन्द्रोंका जो वर्णन किया है उसमें २६ इन्द्रोंके नामोंका निर्देश है जब कि उनकी मान्यता १२ या १४ संख्या तक ही सीमित है । ऋतु इन्द्रक आदिसे कितने श्रेणिबद्ध विमानोंकी श्रणियां पूर्वादिक दिशाओंमें स्थित हैं , इस विषयमें दो मतभेद उपलब्ध होते हैं- एक ६३, ६२, ६१ आदिका तथा दूसरा ६२, ६१, ६० आदि का (देखिये ति, प. गाथा ८, ८३-८५)। हरिवंशपुराणमें ६३ आदि श्रेणिबद्धोंकी मान्यताको स्वीकार किया गया है (देखिये श्लोक ६,६३)। इसके विपरीत तत्त्वार्थवार्तिक (पृ. २२५) आदिमे ६२ आदिकी मान्यताका अनुसरण किया गया है। इन विविध मान्यताओंके कारण भी यदि ग्रन्थकर्ताने प्रकृत कल्पोंका वर्णन स्पष्टतासे न किया हो तो यह असम्भव नहीं कहा जा सकता है। (१२) बारहवें उद्देशमें ११३ गाथायें हैं। यहां ज्योतिष पटलके वर्णनकी प्रतिज्ञा करके सर्वप्रथम यह बतलाया है कि ८८० यो. ऊपर जाकर चन्द्रका विमान है। चन्द्रविमानोंका विस्तार व आयाम ३ गम्यति और १३०० धनुषसे कुछ अधिक है। इन विमानोंको प्रतिदिन १६ हजार आभियोग्य जातिके देव खींचते हैं। उक्त देव पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमसे सिंह, गज, वृषभ और घोड़ेके आकारमें ४-४ हजार रहते है। इसी प्रकार १६ हजार आभियोग्य देव सूर्यविमानके, ८ हजार ग्रहगणोंके, ४ हजार नक्षत्रोंके और २ हजार ताराओंके वाहक हैं। जंबूद्वीपमें २, लवणसमुद्रमें ४, धातकीखण्डमें १२, कालोदधिमें ४२ और पुष्कराध द्वीपमें ७२ चन्द्र हैं। मानुषोत्तर पर्वतके आगे पुष्करद्वीपमें १२६४ चन्द्र है। यहां आदिका प्रमाण ४४, उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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