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________________ १२२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना होता है । अन्तिम प्रभ इन्द्रकके आश्रित जो २३-२३ श्रेणियोंकी ४ श्रेणियां हैं उनमेंसे दक्षिण दिशागत श्रेणिके १८वें श्रेणिवद्धमें सौधर्म इन्द्रका तथा उत्तर दिशागत श्रेणिके १८वें श्रेणिबद्धर्मे ईशान इन्द्रका निवास है । यहां वहतसी देवांगनाओं तथा अन्य सामानिक आदि विशाल परिवार के साथ रहते हुए ये इन्द्र अनुपम सुखका उपभोग करते हैं । ऊपर सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलसे लेकर शतार-सहस्रार युगल तक पांच कल्पयुगर्लोमें क्रमसे, ७, ४, २,१ और १ पटल हैं । आगे आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन ४ कल्पोंमें ६ पटल हैं। यहां तक 'कल्प' संज्ञा है । आगे इन्द्र सामानिक आदिकी कल्पनासे रहित होने के कारण अवेयक आदि कल्पातीत गिने जाते हैं। ग्रैवेयकोंमें नीचे, मध्यमें और ऊपर क्रमसे सुदर्शन, अमोघ व सुप्रबद्ध आदि ३-३ पटल हैं। इनके ऊपर ९ अनुदिशोंका एक आदित्य पटल तथा अनुत्तर विमानोंका एक सर्वार्थसिद्धि नामक अन्तिम पटल है। यहां संक्षेपमें इन देवोंकी आयु और शरीरोत्सेव आदिका भी कुछ वर्णन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थमें जो कल्पोंका वर्णन किया गया है वह क्रम रहित, असम्बद्ध और कुछ पुनरुक्त भी प्रतीत होता है । इसमें जहां किसी अनावश्यक विषयका अनेक वार वर्णन किया गया है वहां आवश्यक विषयकी चर्चा भी नहीं की गयी है। उदाहरणार्थ गाथा २११ आदिमें सौधर्म कल्पक ३१ पटल करके और सौधर्म इन्दके अवस्थानको बतला करके भी आगे फिरसे गाथा २२५ आदिके द्वारा प्रभ विमानका उल्लेख करके सौधर्म इन्द्रके अवस्थान व सुधर्मा सभा आदिकी चर्चा की गयी है । इसके विपरीत ऋतु आदि इन्द्रकोंसे जो ६२, ६१ आदि ( १-१ कम ) श्रेणिवद्ध विमानोंकी विमानश्रेणियां निकली हैं उसका निर्देश करना आवश्यक था, फिर भी उसका निर्देश यहां नहीं किया गया है। इसी प्रकार जैसे २१८ वीं गाथा ३१ पटलोका सम्बन्ध सौधर्म कल्पके साथ बतलाया है उसी प्रकार शेष कल्पोंसे सम्बद्ध पटलोंकी भी पृथक् पृथक् संख्याका उल्लेख करना आवश्यक था, जो नहीं किया गया है । यही नहीं, बल्कि शेष पटलोंका जो यहां (गा. ३२८ आदि) नामोल्लेख किया है वह भी कुछ दुरूह ही है। कल्प १२ हैं या १६ इस प्रकारकी संख्याका उल्लेख भी यहां देखनेमें नहीं आता । यद्यपि गाथा ३४१ में सौधर्मसे लेकर अच्युत पर्यन्त कल्प जानना चाहिये, ऐसा निर्देश किया है। फिर भी वहां न एक निश्चित संख्या है और न समस्त नामोंका निर्देश भी। इसी प्रकार यहां सौधर्म इन्द्रकी विभूति एवं परिवार देवोंका वर्णन करते हुए विना किसी प्रकारके सम्बन्धकी सूचनाके ही गाथा २४४-२४५ आदिमें संख्यात व असंख्यात योजन विस्ताखाले विमानोंका उल्लेख किया गया है। विचार करनेपर इस असंगतिका एक कारण कल्यों विषयक मतभेद भी प्रतीत होता है। तिलोयपण्णत्ती ( महा. ८, गा. ११५, १२७-२८, १४८ और १७८ आदि) में १२ और १६ कल्पोंकी मान्यताका उल्लेख स्पष्टतापूर्वक किया गया है। इतना ही नहीं, बल्कि वहांपर १२ कल्योंकी मान्यताको प्राथमिकता भी दी गई है। तदनुसार ही वहां (म. ८, गा. १२९-१३४, १३७-१४६ ) कल्पोंकी सीमाका निर्धारण करते हुए किस कल्पके अन्तर्गत कितने इन्द्रक, अगिवद्ध और प्रकीर्णक विमान है; यह भी स्पष्ट रतला दिया है। इसके अतिरिक्त समस्त विमान संख्याका भी उल्लेख वहांपर (८, १४९-१५१) प्रथमतः १२ कल्पोंकी मान्यतानुसार ही किया गया है । यह संख्याका क्रम तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ( ४, २२) में भी ठीक इसी प्रकारसे पाया जाता है। आगे जाकर वहां श्रेणिवद्ध और प्रकीर्णक विमानोंकी अलग अलग संख्या १ आनतं प्राणताख्यं च पुष्पकं चानते त्रयम् । अच्युते सानुकारं स्यादारुणं चाच्युतं त्रयम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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