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________________ १३० जंबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना ग्रन्थावतार के सम्बन्ध में यहां यह बतलाया गया है कि उस कालमें उस समय मिथिला नामकी समृद्ध नगरी थी । उसके बाहिर उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशाभागमें यहां माणिभद्र नामका चैत्य था । राजाका नाम जितशत्रु और रानीका नाम धारिणी था । उस समय वहां महावीर स्वामीका आगमन हुआ । परिषद् आयी और धर्मश्रवण कर वापिस गयी । उस समय श्रमण भगवान् महावीरके ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । गोत्र उनका गोतम था । वे सात हाथ ऊंचे और समचतुरस्रसंस्थान से सहित थे। उन्होंने तीन वार आदाहिण-पदाहिण करके भगवानकी वन्दना की और नमस्कार किया । तत्पश्चात् वे बोले कि भगवन् ! जंबूद्वीप कहां है, वह कितना बड़ा है, और किस आकारका है ? इस क्रमसे उन्होंने जंबूद्वीपके विषयमै अनेक प्रश्न पूछे और तदनुसार भगवान्ने उसी क्रमसे उनके प्रश्नोंका उत्तर दिया । इन्द्रभूति गणधरका अन्तिम प्रश्न यह था कि भगवन् ! जंबूद्वीपको इस नामसे क्यों कहा गया है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि हे गौतम ! इस जंबूद्दीप नामक द्वीपमें बहुतसे जंबूवृक्ष और जंबूवनखण्ड स्थित हैं। यहां सुदर्शन नामका जंबूवृक्ष है जिसके ऊपर अनादृत नामका एक महर्द्धिक देव रहता है । इसी कारण इस द्वीपको जंबूद्वीप कहा जाता है । 1 उस समय श्रमण भगवान् महावीरने मिथिला नगरीमें माणिभद्र चैत्यके भीतर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, बहुत श्राविकाओं, बहुत देवों और बहुत देवियोंके मध्य में स्थित होकर इस प्रकार व्याख्यान किया, भाषण किया, और प्रज्ञापन किया । इसीका नाम 'जंबूदीवपण्णत्ती' या 'जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति' हुआ । विपयक्रमके अनुसार इस ग्रन्थको निम्न १० अधिकारों में विभक्त किया जा सकता है- १ भरत क्षेत्र २ काल ३ चक्रवर्ती ४ वर्ष वर्षधर ५ तीथैकराभिषेक ६ खण्ड योजनादि ७ ज्योतिषचक्र ८ संवत्सर ९ नक्षत्र और १० समुच्चय । १ भरत क्षेत्र - इस अधिकारमें जंबूद्वीपकी जगती, भरत क्षेत्र, वैताढ्य पर्वत, सिद्धायतन, दक्षिणार्ध भरत कूट देवकी राजधानी ( अन्य जंबूद्वीपस्थ ), उत्तरार्ध भरत और वृषभ कूट पर्वतका वर्णन है । २ काल - इस अधिकारमें सर्वप्रथम अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालोंके ६-६ भेदोका निर्देश करके आवलिका, उच्छ्वास, निःश्वास और मुहूर्त आदिका प्रमाण बतलाया गया है । तत्पश्चात् परमाणुको दो भेदोंमें विभक्त कर उसका स्वरूप' बतलाते हुए उसन्हसहिया ( अवसन्नासन्न ), सव्हिसहिया, ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु; क्रमशः देव - उत्तरकुरु, हरिवर्ष रम्यकवर्ष, हैमवत हैरण्यवत वर्ष एवं पूर्वापर विदेहों में उत्पन्न मनुष्यों का चालाग्र; लिक्षा, यूक, यवमध्य और अंगुलके प्रमाणकी प्ररूपणा में इन सबको उत्तरोत्तर क्रमसे आठ आठ गुणा बतलाया गया है। आगे चलकर १० प्रकारके कल्पवृक्षोंका उल्लेख करके उस कालमै उत्पन्न हुए नर-नारियों के आकारका वर्णन किया गया है। यहां मानुषियों की प्ररूपणा में वैरसे लेकर क्रमश: ऊपरके सभी अंगों व उपांगों का वर्णन है । इसके अतिरिक्त यहां उन ३२ लक्षणोंका भी नामोल्लेख (पृ. ५५-५६ ) कर दिया गया है जिनकी धारक नारियां हुआ करती हैं । १ तुलनाके लिये प्रस्तुत ग्रन्थ ( दि. जं. प. ) की गाथा १३, १६-१८ देखिये । २ तुलना के लिये प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा १३, १९-२३ देखिये । इस प्रकरण में जो 'सत्थेण सुतिक्खेण वि' आदि गाथा ( १३-१८ ) आयी है वह अपने इसी रूपमें इस (वे.) जंबूदीवपण्णत्ती (१.४२), अनुयोगद्वार सूत्र, ज्योतिषकरण्ड (गा. २, ७३ ) और कुछ परिवर्तित रूपसे तिलोयपण्णत्ती ( १-९६) में भी पायी जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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