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________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना १३१ यहां सुषम-सुषमा, सुषमा और सुषमदुःषमा कालोंके नर-नारियोंकी आयु, शरीरोत्सेध, पृष्ठकरण्डक (पृष्ठास्थियां) और बालरक्षण आदिका वर्णन प्रायः दिगम्बर जंबूदीवपण्णसी' और तिलयेयपण्णत्ती आदिके समान ही पाया जाता है । सुषम-दुःपमा नामक तीसरे कालके अन्तिम त्रिभागमें जब पल्योपमका आठवां भाग शेष रह जाता है तब ऋषभ जिनको भी ग्रहण करके १५ कुलकर पुरुष उत्पन्न होते हैं। इनके नाम प्रायः सर्वत्र समान ही पाये जाते हैं । ऋषभ जिनेन्द्रके वर्णनमें यहां यह बतलाया है कि दीक्षा ग्रहण करते समय उन्होंने चतुर्मुष्टि लोच किया तथा साधिक एक वर्ष तक वे चीवर (देवदूष्य) के धारी रहे । ये वर्षाकालको छोड़कर हेमंत और ग्रीष्म ऋतुओं में ग्राममें १ रात्रि और नगरमें ५ रात्रि रहते थे। इनके पांच कल्याणक (गर्भावतार, जन्म, राज्याभिषेक, दीक्षा एवं केवलज्ञान ) उत्तरापाह नक्षत्रमें तथा छठा (परिनिर्वाण ) कल्याणक अभिजित् नक्षत्रमें सम्पन्न हुआ था। उनके निर्वाणकालके समय सुषमदुःषमा कालमें ८९ पक्ष ( ३ वर्ष ८ माह और १५ दिन) शेष रहे थे। शिर्वाण महोत्सवमें सौधर्म इन्द्रने चतुर्निकाय देवोंको आज्ञा देकर एक भगवान् तीर्थंकरके लिये, एक गणधरोंके लिये और एक शेष अनगारोंके लिये; इस प्रकार ३ चिताओंकी रचना करायी। तब शक्र देवेन्द्रने तीर्थकरके शरीरको क्षीरोदकसे नहलाया, गोशीर्ष चन्दनसे लेपन किया, हंसलक्षण पटशाटक ( वस्त्र) पहिनाया, और सब अलंकारोंसे विभूषित किया। फिर ३ शिविकाओंकी विक्रिया कराकर उनमें शोकसे संतप्त होते हुए क्रमशः तीर्थंकर, गणधरों एवं शेष अनगारोंके शरीरको आरूढ कर चिताओंमें स्थापित किया। तत्पश्चात् देवेन्द्रने अग्निकुमार और वायुकुमार देवोंको बुलाकर उनके द्वारा क्रमशः अग्निकाय और वायुकायकी विक्रिया करायी। इस प्रकार निर्वाणमहोत्सव करके उपर्युक्त सौधर्म आदि इन्द्रोंने नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर अंजनगिरि आदि नियत स्थानों में ८ दिन तक महामहिमा की । पश्चात् वहांसे अपने अपने स्थानमें आकर उन्होंने तीर्थकरके सकह (दंष्टा) आदि जिन अंग-उपांगोंको ले लिया था उन्हें यहां अपने अपने विमानादिके पास वज्रमय गोल समुग्गयों (डिब्बों) में रक्खा। अन्तमें यहां क्रमसे दुःषमसुषमा, दुःपमा और दुःषमदुःषमा कालों में होनेवाली नर-नारियोंकी अवस्थाओंका भी वर्णन किया गया है । ३ चक्रवर्ती- यहां सर्वप्रथम गौतम गणधर भगवान्से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! इस भरत वर्षको भरत वर्ष नामसे क्यों कहा जाता है ? इस प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने उक्त क्षेत्रकी 'भरत' इस संज्ञाका कारण भरत चक्रवर्तीको बतलाते हुए उनके चरित्रका विस्तारसे वर्णन किया है। उक्त वर्णनमें यहां विनीता नगरी, भरत चक्रवर्तीकी सुन्दरता, चक्र रत्नकी उत्पत्ति, तन्निमित्तक महोत्सव प्रवर्तन, दिग्विजय, ऋषभ कूट १ देखिये दि. ज. प. गा. २, ११०-१६५. २ ति. प. ४, ३३६-४०९. ३ एक मुष्टि शिखास्थानकी रही, सुन्दर दिखनेके कारण इन्द्रके आग्रहसे उसका लोच नहीं किया (जं. प्र. पृ.८० में दी गयी टिप्पणके अनुसार )। ४ ति. प. ४-५५३ ५ तुलनाके लिये देखिये प्रस्तुत जं. प. गाथा २, १७७-२०९; ६ तुलनाके लिये देखिये प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा ७, ११५-१४५; ति. प. ४, १३०४-६९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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