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________________ १३२ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना पर्वतके पूर्व कटकपर नामलेखन, विनमी विद्याधरके द्वारा भेटमें स्त्री रत्न (सुभद्रा) और नमी विद्याधरके द्वारा रत्नोंका समर्पण, सुभद्रासौन्दर्य, भरत चक्रवर्तीका निधियों और रत्नोंकी प्राप्ति के लिये अष्टमभक्त ग्रहण करना, नौ निधियोंकी प्राप्ति और उनका स्वरूप, चक्र रत्नका वापिस विनीता राजधानीकी ओर प्रयाण करना, विनीता राजधानीमें प्रवेश, भरत राजाके द्वारा १६००० देवों और ३२००० राजाओं आदिका यथायोग्य सत्कार, महा राज्याभिषेक, १४ रत्नोंके उत्पत्तिस्थान, चक्रवर्तीकी विभूति', कदाचित् मजनगृहसे निकलकर आदर्शगृहमें प्रविष्ट हो आत्मनिरीक्षण करते हुए भरत राजाको शुभ परिणामों के निमित्तसे आवरणीय कर्मोके क्षयपूर्वक केवलशान एवं केवलदर्शनकी प्राप्ति, स्वयमेव आभरणालंकारका परित्याग, पंचमुष्टि लोच करना, आदर्शगृहसे निकलकर प्रव्रज्याका ग्रहण करना, कुछ कम एक लाख पूर्व तक केवली पर्यायमें रहकर चार अघाति कोके सीण होनेपर निर्वाणप्राप्ति, तथा भरत क्षेत्रमें पल्योपम आयुवाले महर्डिक भरत देवके निवासका निर्देश, इत्यादि विषयोंका यहां विस्तारपूर्वक कथन किया गया है। ४ वर्ष-वर्षधर- यहां क्षुद्र हिमवान् पर्वतका वर्णन करते हुए उसके अवस्थान, विस्तारादि, उसके उपरिम भागमें स्थित पद्मद्रह, उसके मध्यमें स्थित कमल, उसके भी मध्यम स्थित भवन, श्रीदेवीके परिवारदेव-देवियोंके कमलभवन, श्रीदेवीका निवास, पद्मद्रहके पूर्व तोरण द्वारसे गंगा महानदीका निर्गमन, पर्वतसे गंगा नदीके पतनस्थानमै जिहिका (नाली) का अवस्थान, गंगाप्रपातकुण्ड, तोरण, गंगाप्रपातकुण्डके मध्यमें स्थित गंगाद्वीप, वहां गंगादेवीका भवन तथा १४ हजार नदियोंसे पुष्ट हुई गंगा महानदीका पूर्व लवणसमुद्रमें प्रवेश; इन सबका यहां वैसा ही वर्णन किया गया है जैसा कि जंबूदीवपण्णत्ती और तिलोयपण्णत्ती आदि अन्य दिगम्बर ग्रन्थोंमें । __आगे चलकर सिंधू नदीके वर्णनक्रमको गंगा नदीके समान बतलाकर उसकी कुछ विशेषताओंका निर्देश करते हुए रोहितंसा नदीके उद्गम आदिका वर्णन किया गया है । तत्पश्चात् क्षुद्र हिमवाके ऊपर ११ कटोंका नामोल्लेख करके सिद्धायतन कट और क्षुद्र हिमवान् कूटका निरूपण विशेष रूपसे किया गया है। तत्पश्चात् यहां क्रमसे हैमवत वर्ष, महाहिमवान् पर्वत, हरिवर्ष, निषध पर्वत, महाविदेह, नीलवान् पर्वत, रम्यक वर्ष, रुक्मी पर्वत, हैरण्यवत वर्ष, शिखरी पर्वत और ऐरावत वर्ष; इन क्षेत्र-पर्वतोंकी विस्तृत प्ररूपणा की गई है। : ५ तीर्थकराभिषेक- इस अधिकारमें दिक्कुमारिकाओं तथा सपरिवार सब इन्द्रोंके द्वारा अपनी अपनी विभूतिके साथ मेरु पर्वतके ऊपर किये जानेवाले जिनजन्माभिषेककी प्ररूपणा की है। १ उस्सप्पिणी इमीसे तइयाए समाइ पच्छिमे भाए। अहमंसि चकवट्टी भरहो इअ नामधिज्जेण ।।१।। अहमंसि पढमराया अहम भरहाहिवो गरवरिंदो। णस्थिमहं पडिसत्त जियं मए भारह वासं ॥२॥ पृ. २१८. तुलनाके लिये देखिये प्रस्तुत ग्रन्थकी गाथा ७, १४६-४९. ति. प. ४, १३५१-५५. २ देखिये पृ. २२७ सूत्र ८९-९० गा.१-१४; तुलनाके लिये देखिये ति. प. ४, १३८४-८६. ३ पृ. २५८ सूत्र १२०.; ति.प. ४, १३७७-८२. ४ पृ. २५९ सूत्र १२१.; ति. प. ४, १३७०-१४००. ५ कमलोंकी समस्त संख्या यहां (पृ. २७४) १२० लाख बतलाई गई है जब कि प्रस्तुत जं. प. (३, १२६ ) और ति. प. (४, १६८९ ) में वह १४० ११६ ही निर्दिष्ट की गई है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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