________________
जंबूदीवपण्णत्ती
[ १.२८
सोलसदलमिछगुणं' (१) जस्थिच्छसि सोलसद्धभागम्मि । सोलसदलबलसहिदं इच्छफलं होइ जगदीए ॥२८ चत्तारिधणुसहस्सा उत्तंगा कणयवेदिया दिव्वा । वरवज्जणीलमरगयणाणाविहरयणसंछण्णा ॥ २९ तिस्सेव य जगदीए उवरिं वरवदिया रयणचित्ता। पंचसयदंडभित्तों वित्थारो तीऐ पण्णत्तो ।। ३ चत्तारिधणुसहस्सा अड्डादिज्जासएहि परिहीणा । बेजोयणवित्थिण्णा दोस वि पासेसु जगदीए ॥३॥ घेलंधरदेवाणं हवंति णगराणि तत्थ रम्माण। अब्भंतरश्मि भागे महोरगाणं च विण्णेया ॥ ३२ भहिसेयणदृसालाउववादसभाघराणि रम्माणि । पायारगोउरालय अणाइणिहणाणि सोहंति ॥३३ कंचणपवालमरगयकक्केयणपठमरायमणिणिवहा । तोरणवंदणमाला सुगंधगंधुदधुर्या रम्मा ॥ ३४ पुण्णागणागचंपयअसोयवरबउलतिलयवच्छादी । उभो पासेसु तहाँ उववणसंडा विरायति ॥ ३५ कल्हारकमलकंदलणीलुप्पलकुमुदकुसुमसंछण्णा । पोक्खरिणिवाविवप्पिणिसुंदीहियाओ विरायति ॥३६
१
चाहिये ॥ २७ ॥ सोलहके अर्थ माग अर्थात् आठ योजनकी उंचाईमें जहाँ कहीं भी जगतीके विस्तारके जाननेकी इच्छा हो [ वहां जगतीके शिखरसे जितना नीचे उतरे हों उतनेमें एकका भाग देनेपर जो प्राप्त हो उसमें ] सोलहके दलके दल अर्थात् चार (१६२२ = ४ ) को मिलानेपर जगतीके अभीष्ट विस्तारका प्रमाण होता है । [जैसे उपरिम भागसे १ योजन नीचे उतर कर यदि वहांका विस्तार जानना है तो वह
१ + ४ = ५. इस प्रकारसे पांच योजन एक कोश होगा ]॥ २८ ॥ उसी जगतीके ऊपर चार हजार धनुष ऊंची उत्तम वज्र, नील और मरकत आदि नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त दिव्य सुवर्णमय वेदिका है। रत्नोंसे चित्रविचित्र उस उत्तम वेदिकाका विस्तार पांच सौ धनुष मात्र कहा गया है ॥ २९-३० ॥ जगतीके दोनों पार्श्वभागोमें अढ़ाई सौ धनुष कम जो चार हजार धनुष प्रमाण विस्तार है वापर बेलंधर देवोंके दो योजन विस्तीर्ण रमणीय नगर हैं। उसके अभ्यन्तर भागमें महारग देवोंके नगर जानना चाहिये ॥३१-३२॥ उनमें अभिषेकशाला नाट्यशाला और उपपादसभा, ये प्राकार एवं गोपुरालयोंसे संयुक्त अनादि-निधन रमणीय घर शोभायमान हैं ॥ ३३ ॥ वे रमणीय भवन सुवर्ण, प्रवाल, मरकत, कर्केतन और पद्मराग मणियोंके समूहसे निर्मित; तोरण एवं वंदनमालाओंसे मुशेभित, तथा सुगन्धित गन्धके प्रसारसे युक्त हैं ॥३४॥ वेदिकाके उभय पार्श्वभागोंमें पुन्नाग, नाग, चम्पक, अशोक, उत्तम वकुल और तिलक आदि वृक्षोंसे सहित उपवनषण्ड विराजमान हैं ॥ ३५ ॥ वनषण्डोंमें कल्हार (सफेद कमल), कमल, कंदल, नीलोत्पल और कुमुद कुसुमोसे व्याप्त पुष्करिणी, वापियां, वप्रिणी (१) एवं उत्तम दीर्घिकायें विराजमान हैं ॥ ३६ ॥ स्वाभाविक सौन्दर्यसे संयुक्त, और जिन--सिद्धभवन.
१श दलम्मिगुण. २पब मेता. ३ श सीय. ४ पब विछिन्ना. ५ उश सभाव्वराणि. ६ उ सुगंधगंधद्धया, प सुगंधुसंधधुया, ब सुगंधुगंधच्या. ७ उ उभत्तुं पासेसु तहा, प उभऊणसेस तहा, बयमऊपासेसु सहा. ८ उपब पोखराणिवाविवप्पिण, श पोखरण व वि विचप्पिण.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org