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________________ -१. १८) पढमा उद्देसो सयलं जंबूदीव' परिरयदि पुरं सभावरसपुग्णं । जिणसिद्धभवणणिवेहं को सका वण्णिउं सयलं ॥ ३७ जंबूदीवस्स तहा गोउरदाराणि होति चत्तारि । विजयं तु वेजयंत जयंतमपराजिय चेव ॥३८ पुवादिसणं विजयं दक्षिणभागेण वइजयंतं तु । होइ य पच्छिमभागे जयंतमपराजियं च उत्तरदो ॥३९ वरणियरयणमरगयणाणारयणोवहारकयसोदा । जोयणभट्ठस्सेहा तदद्धविक्खंभभायामा ॥४० सिंहासणछत्तत्तयभामंडलचामरादिसंजुत्ता। अरुहाण ठिया पडिमा गोउरदारेसु सम्वेसु ॥४१ विजयंतवइजयंता जयंतअपराजिदा सुरा होति । पल्लाउगा सुरूवा चदुसु वि दारेसु बोद्धन्वा ॥४२ वरपट्टणं विरायइ विजयंतकुमारसुरवरिंदस्स । बारहसहस्सजोयणविक्खंभायामणिहिटुं ॥४३ रयणमया पासादा वेरुलियमया य कंचणमया य । ससिकंतसूरकता कक्केयणपउमरागमया ॥४४ एवं भवसेसाणं देवाणं पुरवराणि णेयाणि । वरगोउरदारादों उरि गंतूण तिटुंति ॥ ४५ दारंतरपरिमाणं बावण्णा जोयणा मुणयन्वा । उणासीदिसहस्सा णिहिट्ठा सम्वदरसीहि ॥४६ पण्णत्तरिसय णेया बत्तीसा धणुपमाण णिद्दिट्ठा । तिण्णव अंगुलाई तिज्जव संखा समदिरेया ।।४७ सोलसजोयणऊणा जंबूदीवस्स परिधिमज्झिम्सि | दारंतरपरिमाणं चदुभजिदे होइ ज ल ॥४८ समूहसे युक्त वह पुर समस्त जम्बूद्वीपको परिवेष्टित करता है। उसका सम्पूर्ण वर्णन करने के लिये कौन समर्थ है ! ॥ ३७॥ जम्बूद्वीपके [ चारों ओर ] विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, ये चार गोपुरद्वार हैं ॥ ३८ ॥ इनमेसे पूर्व दिशामें विजय, दक्षिण भागमें वैजयन्त, पश्चिम भागमें जयन्त और उत्तर दिशामें वैजयन्त गोपुरद्वार है ॥ ३९ ॥ उत्तम सुवर्ण, रत्न, मरकत और नाना रत्नोंके उपहारसे शोभायमान ये द्वार आठ योजन ऊंचे और इससे आधे विष्कम्भ व आयामसे सहित हैं ॥ ४०॥ सब गोपुरद्वारोमें सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चामरादिसे संयुक्त अरिहन्त जिनोंकी प्रतिमायें स्थित हैं ॥११॥ चारों द्वारोंपर क्रमशः विजयन्त, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, ये चार सुन्दर देव हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण जानना चाहिये ॥ ४२ ॥ विजयंतकुमार सुरेन्द्रका उत्तम पुर विराजमान है। इस नगरका विष्कम्भ व आयाम बारह हजार योजन प्रमाण कहा गया है।॥४३॥ इन नगरोंमें रत्नमय, वैडूर्यमणिमय, सुवर्णमय तथा चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्केतन और पद्मराग मणियोंसे निर्मित प्रासाद हैं ॥ १४॥ इसी प्रकार शेष देवोंके श्रेष्ठ नगर जानना चाहिये । ये नगर उत्तम गोपुरद्वारोंसे ऊपर जाकर स्थित हैं ॥ ४५ ॥ विजयादिक द्वारोके अन्तरालका प्रमाण सर्वदर्शियों द्वारा उन्यासी हजार बावन योजन, पचत्तर सौ बत्तीस धनुष, ती अंगुल और तीन जौ ( ७९०५२ यो., ६ कोश, ७५३२ धनुष, ३ अंगुल, ३ यव ) से कुछ अधिक निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ॥४६-४७॥ जम्बूद्वीपकी परिधिमेसे सोलह योजन कम कर शेषमें चारका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना उक्त द्वारोंका अन्तरप्रमाण होता है ॥४८॥ १ उप य जंबुद्दीवं. २ ५ ब सिद्धवयणणिवहं. ३ पब वैजयंतं ५ 3 दिसेण विजयं, श दिसेण विजयं. ५उश असहाण ठिया, प अरहाण ठिय, ब अरहाण विया. ६उ सुतूबा, पब सरूवा, शतवा. ७ उ वा वि, व श बहुसु वि. ८ उ श हारादो. ९ उ श दरिसिदि. १० उ प प श समाधिरेया. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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