________________
१४] जबूदीवपण्णत्ती
[२.११जीवा गुरुमणुसुद्धा' सेसद्धं चूलिया समुट्ठिा । जंबूदीवस्स तहा गायब्वा सधजीवाणं ॥ ३॥ भरहेरावयमझे वेयड्डा भूधरा समुत्तुंगा । रयदमया णायव्वा अणाइणिहणा समुट्ठिा ॥१२ पणुवीसा उब्विों पण्णासा जोयणा दु विस्थिण्णा | छच्चेव य सक्कोसा अवगाढा होति णिहिटा ॥ ३३ अदाला सत्तसया गवयसहस्साणि जोयणायामा । बारसकलाविसेसो वेदवाणं तु दक्खिणदो ॥ ३४ वीसा सत्तसदाणि य दसयसहस्साणि उत्तरे पासे । बारह किंचूणकला पुष्वावरसलिकणिहिपुट्ठा ॥ ३५ चत्तारिसया गेया अडसीदा जोयणाणि पस्सभुजा । वेदड्डाण णगाण य सुद्धा सोलस कला हॉति ॥ ३६ पंचेव जोयणसदा चउंदसपरिहीणचूलिया णेया । भरहस्सेरवदस्स य वेदहाणं समुट्टिा ॥ ३७ दसदसजायणभागा उवरि गंतूण गिरिवराण तहा। दो दो सेढी पवरा वित्थिण्णा दसदसाणेया ॥ ३४ दक्खिणवरसेढीए पण्णास पुरवरा समुद्दिट्टा । णाणाविहरयणमया सट्ठी पुणु उत्तरे पासे ॥ ३९ विज्जाहराण जयरा भणाइणिहणा सहावणिप्पण्णा । रयणमया बिग्णिसया सवेदिया तोरणाडोवा ॥४.
___ बड़ी जीवामें से छोटी जीवाको घटानेपर जो शेष रहे उसके अर्थ भाग प्रमाण जम्बू द्वीपकी सब जीवाओंका प्रमाण जानना चाहिये ॥ ३१ ॥ उदाहरण- दक्षिण भरतकी जीवा ९७४८११, विजयार्धकी जीवा १०७२०११; १०७२०१३ - ९७४८१३ २ = १८५३४ विजयार्धकी चूलिका ।
___भरत क्षेत्रके मध्यमें और ऐरावत क्षेत्रके मध्यमें उन्नत, रजतमय, अनादिनिधन वैताढ्य पर्वत कहे गये जानना चाहिये ॥ ३२ ॥ ये वैताढ्य पर्वत पच्चीस योजन ऊंचे, पचास योजन विस्तीर्ण और एक कोश सहित छह योजन अवगाहसे सहित हैं ॥ ३३ ॥ दक्षिणकी ओर वैताब्य पर्वतकी जीवाका प्रमाण नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन और बारह कला है ॥ ३४ ॥ उत्तर पार्श्वभागमे आयाम अर्थात् जीवाका प्रमाण दस हजार सात सौ बीस योजन और कुछ कम बारह कला है । उक्त पर्वत पूर्व-पश्चिम समुद्रको छूते हैं ॥ ३५॥ वैताढ्य पर्वतोंकी पार्श्वभुजा चार सौ अठासी योजन और साध सोलह कला प्रमाण जानना चाहिये ( देखिये गा. ३० का उदाहरण ) ॥ ३६ ॥ भरत और ऐरावत क्षेत्राके वैताढ्योंकी चूलिका चौदह कम पांच सौ ( ४८६ ) योजन प्रमाण जानना चाहिये ( देखिये गा. ३१ का उदाहरण ) ॥ ३७॥ इन श्रेष्ठ पर्वतोंके ऊपर दस दस योजन जाकर दस दस योजन विस्तीर्ण दो दो उत्तम श्रेणियां हैं ॥ ३८ ॥ इनसे दक्षिण श्रेणीमें पचास
और उत्तर पार्श्वभागमें साठ श्रेष्ठ नगर कहे गये हैं । ये नगर नाना प्रकारके रस्नोंसे निर्मित हैं ॥ ३९ ॥ ये विद्याघरोंके दो सौ नगर अनादि-निधन, स्वभावनिष्पन्न अर्थात् अकृत्रिम, बेदिकाओंसे सहित, और तोरणोंके आटोपसे युक्त हैं ॥ ४० ॥ उक्त नगर पन
१श सिद्धी, पब सुधी. २उश उत्थिद्धा. ३उश देससयसहस्साणि. ४उश पस्सउजा. पपरसगुजा. ५ श मरहस्स रेवदस्स, पबमरहस्स वेवस्स.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org