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-१३. ८१] तेरसमो उद्देसो
[२४३ गयणेहिं बहु पस्सदि बहुसई सुणदि बहुरसं खादि । बहुगंधं भग्यायदि बहुफास विददे जीवो ॥१ मस्थं बहुयं चिंतइ परोक्खबुद्धी दु होइ जीवस्स । एवं मत्थुवलद्धी भवग्गहादी मुणेयन्वा ॥ ७४ बहुवे बहुविहभेदे खिप्पे तहणिस्सिदे भणुत्ते" य । होति धुवे इदरेसु वि भवग्गहादी चदुवियप्पा ॥ ७५ एवं होति' ति तदो बहुवादी बारसहि संगुणिदा। ईदादिभट्ठवासी तिण्णिसदा होंति छत्तीसा ॥ ७६ विदियो दु जो पमाणो मदिपुग्वो तह य होदि सुदणाणो । सो वि अणेगवियप्पो णिहिट्ठो जिणवारदेहि ॥ धूमं दळूण तहा भगीउवलद्धी जह' फुडो होइ । णदिपूरं दळूण' य उवरि वरिट्ठो त्ति जह बोहो॥ve जह भागमलिंगेण य लिंगी सधण्हु पायडो होइ । मदिपुब्वेण तह च्चिय सुदणाणो पायडोर होह ॥ ७९ देवासुरिदमधियं अणंतसुपिंडमोक्खफलपउ। कम्ममलपडलदलणं पुण्ण पवितं सिर्व भई॥८. पुग्वंगभेदभिण्ण भणतभस्थहि संजुदं दिव्वं । णिचं कलिकलुसहरं णिकाचिदमणुत्तरं विमलं१४ ॥ ८१
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॥ ७२ ॥ जीव नयनोंसे बहुत देखता है (चाक्षुष बह्नवग्रह ), बहुत शब्द सुनता है ( श्रोत्रज बह्ववग्रह ), बहुत रसको खाता है ( रसनेन्द्रियज बहृवग्रह ), बहुत गन्धको सूंघता है (घ्राणज बहवग्रह ), और बहुत स्पर्शको जानता है ( स्पर्शनेन्द्रियज बह्नवग्रह ) ॥ ७३ ॥ जीव बहुत अर्थका चिन्तन करता है (अनिन्द्रियज बह्वप्रह), यह जीवकी परोक्षबुद्धि है। इस प्रकारकी अर्थोपलब्धि रूप अवमहादि ज्ञान जानना चाहिये ।। ७४ ।। बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनसे इतर ( अल्प, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त व अध्रव ) इन अर्थभेदोंमें अवग्रहादि रूप चार प्रकारके ज्ञान होते हैं ॥ ७५ ॥ इस प्रकार ईहादिक अट्ठाईस भेदोंको बहु आदिक बारह प्रकारके पदार्थोसे गुणित करने पर वे तीन सौ छत्तीस (२८४१२३३६) होते हैं ॥ ७६ ॥ मतिज्ञानके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला जो द्वितीय श्रुतज्ञान प्रमाण है वह भी जिनेन्द्रोंके द्वारा अनेक भेद युक्त निर्दिष्ट किया गया है ॥ ७७ ॥ जिस प्रकार धूमको देखकर स्पष्टतया अमिकी उपलब्धि होती है, जिस प्रकार नदीपूरको देखकर उपरिम वृष्टिका बोध होता है, तथा जिस प्रकार आगम रूप साधनसे साध्य रूप सर्वज्ञ प्रकट है; उसी प्रकार मतिज्ञानके निमित्तसे श्रुतज्ञान प्रकट होता है [ अभिप्राय यह है कि धूमदर्शन ( मतिज्ञान से होनेवाला अग्निका अनुमान, नदीप्रवाहसे होनेवाला उपरिम वृष्टिका अनुमान, तथा आगमान्यथानुत्पत्ति रूप हेतुसे होनेवाला सर्वज्ञके अस्तित्वका अवबोध, यह सब ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक उत्पन्न होनेसे श्रुतज्ञानके अन्तर्गत है । ] ॥ ७८-७९॥ पूर्व व अंग रूप भेदोंमें विभक्त, यह
तज्ञान प्रमाण देवेन्द्रों व अमरेन्द्रोंसे पूजित, अनन्त सुखके पिण्ड रूप मोक्ष फलसे संयुक्त कर्म रूप मलके पटल को नष्ट करनेवाला, पुण्य, पवित्र, शिव, भद्र, अनन्त अयोंसे संयुक्त, दिव्य, नित्य, कलि रूप कलुषको दूर करनेवाला, निकाचित, अनुत्तर, विमल, सन्देह रूप अन्ध.
13 श महुरसं. २ क बहुवं. ३ उ पब अवुद्धलबी. ४ उ श यमुचे. ५ उश होदि. जो भद्रबीसे. . उ तण जहा, श तळूण जहा. ८ उ श तह. १ उ श णदिपूरं दद्भूण, पब णादिपुरं दठणः १.कपब देवो. ११शपयडो. १२ उकपबश सोक्स, १३प व पुग्गलभेदभिण्णं. १४ उश विउलं.
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