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________________ ३४४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ १३. ८२ संदेह तिमिरदलणं बहुविहगुणजुन्त सग्गसोवाणं | मोक्खग्गदारभूदं णिम्मलवर बुद्धिसंदोहं ॥ ८२ सब्वण्डुमुद्दे विणिग्गय पुग्वावर दोसरहिद परिसुद्ध' । अवखयमणादिजिणं सुदुणानपमान निहिं ॥ ८३ वसिपमाणेण तद्द वयणपमाणं तदो पुणो होदि । वत्तारो' वि वियाणह अट्ठारसदोसपरिहीणो ॥ ८४ जो खुद्द तिसभयद्दीणो दोस्रो तह रोगमोहपरिचतो' । चिंताजरादिरहियो' सो सम्बन्हू समुद्दिट्ठो ॥ ८५ जो मिथ्युजरारहिदो मदविग्भम से दखेदपरिद्दीणो । उप्पत्तिरदिविद्दीणो" सो परमेट्ठी वियाणाहि ॥ ८६ जिंदा विसादहीणो जो सुरमनुएहिं पूजिदो णाणी । भट्टद्धकम्मरहिदो सो देवो तिहुयणे सयले' ॥ ८७ जो कल्लाणसमग्गो मंइसयचउतीसभेदसं पुण्णो । वरपाडिद्देरसहिदो सो देवो होदि सम्वण्हू ॥ ८८ सो जगसामी णाणी" परमेट्ठी वीदराग जिणचंदो । जगनाहो जगबंधू हरिहर कमलासनो बुन्द्रो ॥ ८९ अरहंत परमदेवो तिहुयणणाहो जगुत्तमो वीरो | पुरुसोत्तमो महंतो तिहुयणतिलभो जगुरूंगो " ॥ ९० तवणो" अणतानाणी भणतविरिभो भणतसुद्दणाम | भजरो" अमरो भरहो पूय पवितो सुद्दो भद्दो" ॥ ९१ कारको नष्ट करनेवाला, बहुत प्रकारके गुणोंसे युक्त, स्वर्गकी सीढ़ी, मोक्ष के मुख्य द्वारभूत, निर्मल एवं उत्तम बुद्धिके समुदाय रूप, सर्वज्ञके मुखसे निकला हुआ, पूर्वापरविरोध रूप दोष से रहित, विशुद्ध, अक्षय और अनादि निधन कहा गया है ॥ ८०-८३ ॥ व्यक्ति ( अथवा वक्तृ ) की प्रमाणतासे वचनमें प्रमाणता होती है । जो क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित हो उसे वक्ता (हितोपदेशी ) जानना चाहिये ॥ ८४ ॥ जो क्षुधा, तृषा व भयसे हीन; राग, द्वेष व मोइसे परित्यक्त; तथा चिन्ता व जरा आदिसे रहित है वह सर्वज्ञ कहा गया है || ८५ ॥ जो मृत्यु व जरासे रहित, मद, विभ्रम, स्वेद व खेद से परिहीन; तथा उत्पत्ति व रतिसे विहीन है उसे परमेष्ठी जानना चाहिये ॥ ८६ ॥ जो निन्दा व विषाद से हीन, देवों एवं मनुष्यों से पूजित, ज्ञानी और चार घातिया कर्मोंसे रहित है वह सकल त्रिभुवनमें देव है ॥ ८७ ॥ जो सम्पूर्ण कल्याणोंसे युक्त, चौतीस अतिशयभेदोंसे परिपूर्ण और उत्तम प्राप्तिहायसे सहित है वह सर्वज्ञ देव है ॥ ८८ ॥ वह जगत्का स्वामी, ज्ञानी, परमेष्ठी, वीतराग, जिन चन्द्र, जगन्नाथ, जगबन्धु, हरि (विष्णु), दर ( शिव ), कमलासन ( ब्रह्मा ), बुद्ध, अरइन्त परमदेव, त्रिभुवननाथ, जगेो• तम, वीर, पुरुषोत्तम, महान्, त्रिभुवनतिलक, जगोत्तंग; अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्तवीर्य व अनन्त सुख रूप अनन्तचतुष्टयमे सहित अजर, अमर, अईत्, पूत, पवित्र, शुभ, भद्र, चन्द्र, वृषभ, कमल इत्यादि एक हजार आठ नामोंका धारक होता है । जो गुण अर्थात् इन I १ उश सुह. २ ज श बोसरहिंद संपरिसुद्धं प ब दोसपरिसुद्धं. ३ प व अक्खयणादिणिहणं. ४ उ श पमाण णिद्दि ५ उश जहा. ६ क चत्तारो, श चत्तारे. ७ उ श तिसयड़ीनो. ८ क प ब परिचित्तो. ९ क प व चिंताजराहि रहिदो. १० प ब विहूणो. ११ उश तिहुयणे सयलो, प ब तिहुयणो सयलो. १२ प व णाणो. १४ उ श नवणे, प ब तवणे. १५ उश भरजो. १६ उ रा पूयवित्तो सुहो भद्दे. १३ क प भ जगत्तुंगो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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