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________________ तिकोयपण्णतिका गणित की संख्या युग्म ( Even Number )है, इसलिये अन्तिम सरसों उपर्युक्त संख्या के द्वीप. समुद्रों का अतिक्रमण कर समुद्र में गिरेगा। जिस समुद्र में गिरे उसके विष्कम्भ के बराबर फिर से बेलनाकार १००० योजन गहरा कर खोदकर उसे सरसों से पूर्ण भरे और इसी समय ऊपर लिखी हुई क्रिया की समाप्ति को दर्शाने के लिये शलाका कुंड में एक सरसों डाले। इस प्रकार की क्रिया फिर से की जाय ताकि यह दूसग कुंड भी खाली हो जाय; तभी शलाका कुंड में दूसरा सरसों डाले और बिस द्वीप या समुद्र में उपर्युक्त कुंड का अन्तिम सरसों पड़े उसी के विष्कम्भ का और १००० योजन गहराई का बेलनाकार कुंड खोदकर फिर उसे सरसों से भरकर पुनः खाली कर शलाका कुंड में तीसरा सरसों डाले। यह क्रिया करते करते जब शलाका कुंड भी भर बाये तब प्रतिशलाका कुंड भरना आरम्भ करे। अब वह भी भर बाये तब एक एक सरसों उसी प्रकार महाशलाका कुंड में भरना आरम्भ करे। उसके पूरा भरने पर संख्यात द्वीप समुद्रों का अतिक्रमण कर अन्तिम सरसों जिस द्वीप या समुद्र में पड़े उसी के विस्तार का और १००० योजन गहराई का कुंड खोदकर उसे सरसों से पूर्ण भर दे। जितने सरसों इस गड़े में समागे वह अपन्य परीतासंख्यात Apit और इसमें से १ षटा देने पर उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त होता है। Su= Apj-१ इस प्रकार SubSm>Sj>१ और Apj>Su तथा परिभाषानुसार Apu > Apm > Api ti Apu अर्यात् उत्कृष्ट परीत असंख्यात प्राप्त करने के लिये इसी का विरलन करके, एक एक रूप के प्रति वही संख्या देकर परस्पर गुणन करने से बघन्य युक्तासंख्यात प्राप्त होता है, जो उत्कृष्ट परीत असंख्यात से केवल १ अधिक होता है: [Apf] Pi-Ayj - Apu+१ इसके पश्चात् परिभाषा के अनुसार, ___Ayu>AymAyi>Apu है। उत्कृष्ट युक्त असंख्यात प्राप्त करने के लिये, बघन्य युक्त असंख्यात का वर्ग करने से बो बघन्य असंख्यात प्राप्त होता है, उसमें से १ पटाना पड़ता है: [Ayj]' =Aaj= Ayu+१ ag Aan > Aam > Aaj > Ayuti Aau का मान Ipj से १ कम है। इस Ipi ( बघन्य परीत अनंत ) को प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित क्रिया हैof Equality, Majority, and Minority bave no place in Infinities, but only in termi. nato quantities......". यहां Numbers का आशय केवल प्राकृत संख्याओं १, २, ३.."इत्यादि से है। __ अच, इसी पुस्तक में पृष्ठ २७५ पर अंकित यह अवतरण देखिये "Resolving Simplicius' doubt about the conceit of 'assigning an Infinite bigger than an Infinito,' Cantor proceeded to describe any desired nunbar of such bigger Infinities. First, there is said to be no difficulty in imagining an orderd infinite class; the natural numbers 1.2,3,......themselres suffice. Beyond all these, in ordinal numeration, lies wi boyond w lios w+1; thon w+2, and so on, until w2 is reached, when w2+1, W2+2.......are attainod; beyond all these lies wo, and ति. ग.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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