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________________ अबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना अप्रदेशिकानन्त (Dimensionless Infintesimal), (६) एकानन्त (One directional Infinity ), (७) उभयानन्त (Two direotional Infinity ), (८) विस्तारानन्त (Superficial Infinity), (९) सर्वानन्त (Spatial Infinity ), (१०) भावनानन्त (Infinity of Knowledge), (११) शाश्वतानन्त ( Everlasting). आगे, गणनानन्त का विशद विवेचन दिया गया है। सबसे पहिले स्थूल रूप से संख्या को जैनाचार्यों ने तीन भागों में विभाजित किया है; (१) संख्यात Finite or numerable, (२) असंख्यात Innumerable, और (३) अनंत Infinite. यहां हम, सुविधा के लिये, वैज्ञानिक ढंग से प्रतीकों द्वारा इन विभाजनों का निरूपण करेंगे। संख्यात को B, असंख्यात को A, तथा अनन्त को I के द्वारा निरूपित करेंगे। संख्यात को तीन भागों में विभाजित किया गया है: अपन्य संख्यात, मध्यम संख्यात और उत्कृष्ट संख्यात जिन्हें हम क्रमशः 85, Sm, और Su लिखेंगे । असंख्यात को पहिले परीतासंस्मत, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात में विभाबित कर, पुनः प्रत्येक को बपन्य, मध्यम और उत्कृष्ट में विभाजित किया गया है, जिन्हें हम क्रमश: Ap, Ay, Aa sitt Apj, Apm, Apa; Ayj, Aym, Ayu ata Aaj, Aam, Aao od निरूपित करेंगे। इसी प्रकार, अनन्त का पहिले परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त में विभाजन के पश्चात् इनमें से प्रत्येक को बपन्य, मध्यम और उत्कृष्ट श्रेणी में रखा है। हम इन्हें क्रमश: Ip, Iy, II और Ipj, Ipm, Ipu; Iyj, Iym, Iyu तथा Iij, Iim, Iin द्वारा निरूपित करेंगे। उत्कृष्ट संख्यात (Sa) को प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित क्रिया का वर्णन है:-जम्बूद्वीप के समान लम्ब वर्तुल रम्भाकार १ लाख योजन विष्कम्भ ( Diameter ) बाले तथा १ हजार योजन उत्सेध ( height) वाले चार कुंड स्थापित करते हैं। ये क्रमशः शलाका कुंड, प्रतिथलाका कुंर, महाशलाका कुंड और अनवस्थित कुंड कहलाते हैं। अन्तिम अनवस्थित कुंर को यदि दो सरसों से भरा बावे तो इस राशि प्रमाण बघन्य संख्यात होता हैISi=२। यहां यह उल्लेखनीय है कि १ की गणना, संख्यात में नहीं है। यह प्रथम विकल्प है। २से ऊपर की वे सब संख्याएं बो उत्कृष्ट संख्यात तक प्राप्त नहीं होती, मध्यम संख्यात [Sm>२ पर Sm<Su] के विकल्प है। इस अनवस्थित कुंड को पूरा भरकर एक एक सरसों उत्तरोत्तर द्वीपों और समुद्रों में देता चला जाय । (त्रिलोकसार [गा. २८] में कुंड इस प्रकार भरने को कहा गया है कि सर्वोच्च सतह पर एक सरसों समावे जिससे रम्भ के ऊपर एक शंकु भी स्थित हो जाती है और इस तरह कुल समाये हुए सरसों के बीजों की गणना १९९७११२९३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ ३६३६३६३६३६४प्राप्त होती है। यहां यह नहीं ज्ञात है कि शक की ऊँचाई कितनी और क्यों ली गई। केवल रम्भ में (१९७९१२०९२९९९६८)x(१०)" सरसों समाते हैं।) चूँकि सरसों परिभाषा इन परिभाषाओं और अवधारणाओं से भिन्न है। फिर भी, वह अवधारणा गेलिलियो ( १५६४१६४२) और लार्ज कॅटर (१८४५-१९१८) के "Continuum of indivisibles" तथा "Theory of real numbree" से किस प्रकार सम्बन्धित है यह निम्न लिखित से कुछ स्पष्ट हो जावेगा। अनन्त राशियों के सम्बन्ध में गेलिलियो के लेख का अवतरण श्री बेल द्वारा रचित "Development of mathematics" के पृष्ठ २७३ से उद्धृत किया जाता है ___"Salv.-I see no other decision that it may admit, but to say, that all Numbers are infinite; Squares are infinite; and that neither is the multitude of squares loss than all Numbers, nor this greater than that : and in oonolusion, that the Attributes (आगे के पृष्ठ पर देखिये) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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