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________________ २८] बूदीवपण्णवी [२.१७६मशानुचरादुतो माणुसलेत्तम्मि लम्विहो कालो । भरहेसु रेवदेसु समासदो होइ गिट्ठिो ॥ १७॥ निकालसमजराण उक्स्स देहपरिमाणं । पंचसयदेडमेत्ता जहण सत्तेवरयणीमो ॥ १७७ माळणि पुण्यकोटी उक्कस्सं हेति ताण मणुवाणं । वीसुत्तरसयवासा जहण्णमाङ समुट्ठिा ॥ १७८ पदम्मि काकसमये वित्थयरा सयलचक्कवट्टीयो। बलदेववासुदेवा परिसर ताण जायेति ॥ १७९ भरतपरमदेवावीसा पाठिहरसंजुत्ता। पंचमहाकल्लाणा भइसयचउत्तीससंपण्णा ॥१८. बारहबरचक्कधराउदसरयणाहिवा महासत्ता। खंडभरहणादाणवणिहिमक्खीणवरकोसा ॥101 संबिधुकंदवण्णा गर्वबलदेवा मणंतबलजुत्ता । इकरयणभूसियकरा उत्तमभोगा महातेया ॥ १८२ मरहबरणाहा व व यवासुदेवचक्कहरा । सत्तविहरयणणाहाणीलुप्पळसंणिमसरीरा॥१८३ पीलुप्पासमाया विसंस्मरहादिवा महासचा । गव चैव समुद्दिट्टा परिसत्तू वासुदेवाणं ॥ १८. गाय कामदेवा गणहरदेवा य चरमदेहधरा । दुस्समसुसमे काले उत्पत्ती ताण बोरम्बा ॥ १८५ ॥ १७५॥ मानुषोत्तर पर्यन्त मानुषक्षेत्रके भीतर भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें संक्षेपसे छह प्रकारका काल कहा गया है ॥१७६ ॥ चतुर्थ कालके समयमें मनुष्यों का उत्कृष्ट देहप्रमाण पांच सौ धनुष मात्र और जघन्य सात ही रत्नि होता है ।। १७७ ॥ चतुर्ष कालमें उन मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि और जघन्य आयु एक सौ बीस वर्ष प्रमाण कही गयी है ।। १०८ ॥ इस कालके समयमें तीर्षकर, सकलचक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और उनके ( वासुदेवोंके ) प्रतिशत्रु उत्पन्न होते हैं ॥ ७९ ॥ इसी कालमें प्रातिहार्योसे संयुक्त, पाच महाकल्याणोंसे सहित और चौतीस अतिशयोसे सम्पन चौबीस अरहन्त परमदेव । तीर्थकर ) होते हैं ॥१८०॥ चौदह रत्नोंके अधिपति, महाबलवान्, छह खण्ड रूप भरतक्षेत्रके स्वामी, नौ निधियोंसे सहित और विनश्वर उत्तम कोष (खजाना) से संयुक्त श्रेष्ठ बारह चक्रधर होने हैं ॥१८१॥ शंख, चन्द्र व कुन्द पुष्पके समान वर्णवाले; अनन्त बलसे युक्त, हायमें हल रत्नको धारण करनेवाले एवं उत्तम मोगोंसे संयुक्त महातेजस्वी नौ बलदेव होते हैं ॥१८२॥ भरत क्षेत्रके आधे (तीन) खण्डोंके अधिपति, सात प्रकारके रस्नोंके स्वामी, नील कमलके समान वर्णवाले शरीरसे सहित और चक्रको धारण करनेवाले (अर्धचक्री) नौ वासुदेव होते हैं ॥१८३ ॥ नील कमलके समान कान्तिवाले, तीन खण्ड रूप भरतक्षेत्रके अधिपति और महाबलवान् नौ वासुदेवोंके नौ ही प्रतिशत्रु कहे गये हैं ॥ १८ ॥ उद, कामदेव, गणधरदेव और जो चरमशरीरी मनुष्य हैं उनकी उत्पत्ति दुषमसुषमा कालमें जानना चाहिये ॥ १८५॥ दुषमाकालके आदिमें मनुष्य सात हाथ ऊंचे maamirm........... ............. १श खेदेसु. २ उपक्कवादीया, श चावादीया. ३ ७ श सरिकदु. ५ उशपथ. शताम. ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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