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________________ -२. १९६] विदिओ उदेसो दुस्समकालादीए माणुसया' सत्तहस्थ उस्सेधा । वीसुत्तरसयवासा परमाऊ ताण णिहिट्ठा ॥ १८६ पंचमहालयसाणे भाऊ सयवासे होति परिसंसा । अट्ठा रयणीओ सरीरपरिमाण णिहिट्ठा ॥ १०७ दुस्समदुसमे मणुया मट्ठा हत्थ देहउस्सेधों । परमाऊ वासयया काळादीए समुट्ठिा ॥ १८४ छट्टमकालयसाणे सोलसवासाणि होइ परमाऊ । एया रयणी या उच्छे ही सम्वमणुयाण ॥ १८९ पढमे विदिये दिये काले जे होति माणुसा पवरा । ते भवमिन्चुविहुणा एयंतसहहि संजुत्ता ॥१९. घडये पंचमकाळे मणुया सहदुस्खसंजुदा गेया। छठुमकाले सम्वे गाणाविहदुक्खसंजुत्ता ॥९॥ चरये पंचमका केहगरा दिग्वस्वसंपण्णा । बत्तीसलक्खणधराणीलुप्पलसुरहिणीसासा ॥ १९२ संपुण्णचंदवयणा मत्तमहागयवरिंदमारूढा । धवलाइवत्तचिण्डा सियचामरधुम्बमाणसम्बंगा॥१९३ रंगतवरतुरंगा वियब्धडा गुलगुलंतगजंता । रहवरफुरतेणिवहा बहुजोहणिरुद्धसंचारा ॥ १९४ हारविराइयवच्छा जाणामणिविष्फुरतमणिमउहा। केजरभूसियरा वरकुंडलमंडियागंडा । १९५ बररोगसोगहीणा वियसियसयवत्तगम्भसंकासा । दीसंति दिग्वमणया पुग्वं'. सुकएकिम्मे ॥ १९६ होते हैं । उस समय उनकी उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष प्रमाण कही गयी है ॥ १८६ ॥ पंचम कालके अन्तमें आयु सौ [ वीस ! ] वर्ष और शरीरका प्रमाण सादे तीन रनि कहा गया है ॥ १८७ ॥ दुषमदुषमा कालके आदिमें मनुष्य साढ़े तीन हाय प्रमाण शरीरोत्सेधसे सहित और सौ [ वीस ? वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयुवाले कहे गये हैं ॥१८८ ॥ छठे काल के अन्तमें सब मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु सोलह वर्ष और उंचाई एक रनि प्रमाण जानना चाहिये ॥ १८९ ॥ प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालमें जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्युसे रहित और एकान्त मुखोंसे संयुक्त होते हैं ॥ १९०॥ चतुर्थ और पंचम कालमें मनुष्य सुख-दुःखसे संयुक्त तथा छठे कालमें सभी मनुष्य नाना प्रकारके दुःखोंसे संयुक्त होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १९१ ॥ चतुर्थ व पंचम कालमें कुछ ही दिव्य मनुष्य पूर्वकृत पुण्य कोंके उदयसे दिव्य रूपसे सम्पन्न, बतीत लक्षणों के धारक, नील कमलके समान सुगन्धित निश्वाससे युक्त, सपूर्ण चन्द्रके समान मुखवाले, मदोन्मत्त महागजेन्द्रपर आरूढ, धवल छत्र रूप चिहसे सहित, सफेद चामरोंसे ढोरा जा रहा है समस्त अंग जिनका, उत्तम तुरंगोंके संचारसे सहित, गुल-गुल गर्जना करनेवाले विशाल हाथियोंकी घटासे संयुक्त, उत्तम रयोंके समूहसे स्फुरायमान, बहुतसे योद्धाओंके निरोध युक्त, संचारसे सहित, हारसे शोभायमान वक्षस्थलसे युक्त, नाना मणियोंसे प्रकाशमान मणिमय मुकुटसे विभूषित, केयूरसे भूषित हावाले, उत्तम कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंसे संयुक्त; जरा, रोग एवं शोकसे रहित और विकसित कमलगर्भके सदृश प्रभावाले दिखते हैं ॥ १९२-१९६ ॥ [ उक्त कालोंमें ] १ उ मथसूया, शमशुसया. २[समवीस, ३ उ श अहवा, प व असहा. ४ उ श उब्धिा , पर उठेवा. ५[बीसझ्या.] ६उब उछेहा. ७पब पउरा.८ उश धुधमाण, बट्ठमाण. ९उश करत. १. पुणे. ................................. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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