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दीवपण्णता बहिरंधकान्वा कोटी दालिद स्वपरिहीणो । राणा मणांहसरणा होणंगविरूवसठाणा ॥.. खुज्जा वामणरुवा जीणाविहवाहिवेवणसरीरा। बहुकौहमाणपंडरा लोहिट्टा मायसंमण्णा ॥१९८ संबंधसयणरहिया घरगुत्तरत्तदारपंरिहीणा । खप्परकरकहत्या देसतरगमणपरिहल्या ॥ देहि सिदणकलुणा मिक्स हिंति लाहपरिहीणा । फुरिदकसणिवहा जूयाकिक्साह सं . साहिडिवलंपरा पुहिगलणाहहादीया । दीसंति जरा बहवा पुण्वक्कयपावकम्मैहि॥३॥ घट्टमकाकस्सी एरावदमरहसणामाणं । मज्झिममनवखंडा खयगामी होति मिट्टिा ॥३.१ दुम्विट्रियणीवट्ठीमारीपरपक्कतक्करेंगणेहि। ईदीहि सममिमूदा जासति हु देसविसंयांणि गणणातीहि पुणो अवप्पिणिहदरकाससमयहि । बहुएहि बहते पासरिधरी समुरिट्ठा ॥ton कप्पेसु मसंसँसु ये परावयमरहणामसु । जिणमवणा पण्णता मण्णभवणी समुट्ठिा ॥ २०५ पंचसु भरहेसु वहा पंचसु एरावसु सु । भवसस्पिणि उस्सप्पिणि भवटिवा मिट्टी ॥२॥ बार किगापासुक्कामवहिदा जहर होति विणायणी।वह काकसहावामवाहिश हीति नियमे ॥
मातसे मनुष्य पूर्वकृत पापकोसे बहरे, अंधे, काने, मूक, कोढ़ी, दरिद्र, सुन्दर रूपसे रहित, दोन, अनाथ, अशरण, हीनांग, विरूप आकृतिवाले, कुबडे, वामन (बौने ) रूपसे युक्त, नाना प्रकारकी न्याषियोंसे पीड़ित शरीरवाले, बहुत व प्रचुर क्रोध-मानसे सहित, लोमी, मायासें परिपूर्ण, सम्बन्धी व स्वज। (कुटुम्बी जनों) से रहित; घर, पुत्र, कलत्र और पन्चेंसि विहान; खापर व करकसे युक्त हावाले, देशान्तर गमनसे संतप्त देहि। इस प्रकार दोन एवं करुणापूर्ण वचन बोल कर भिक्षाके निमित्त इधर-उधर घूमनेवाले, परन्तु मिक्षालामसे रहित, स्फोटंयुक्त अत एव दुर्गन्धमय अंग व केशोंके समूहसे सहित, जूं व लोखोसे व्याप्त, तथा खटीक, डोम, शबर, पुलिंद, चण्डालं व नाहल आदि जातियों में उत्पन्न दिखते हैं ॥ १९७-२०१॥ छठे कोलके अन्तमें ऐरावत व भरत नामक क्षेत्रोंके मध्यम आर्यखण्ड विनाशको प्राप्त होनेवाले निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ २०२॥ दुष्ट (अतिवृष्टि ), अनावृष्टि, मारि, परचक और तस्करसमूह रूप ईतियोंसे अभिभूत होकर देश-विषय नष्ट होते है ॥२०३ ॥ पुनः बहुन असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप काल-समयोंके वीतं जानेपर पाषण्डिधरा (पाखण्डमय पृथिवी) कही गयी है ॥२०४ ॥ असंख्यात कल्पोंमें ऐरावत व भरत नामक क्षेत्रोंमें जिनभवन कहे गये हैं, अन्य देवताओंके भवन नहीं कहे गये हैं ॥२०५॥ पांचं मरत तथा पांच ऐरावत क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल स्थित रहते हैं ॥ २०६॥ जिस प्रकार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष अवस्थित है, तया जिस प्रकार दिन और रात्रि अवस्थित है, उसी प्रकार नियमसे वे कालस्वभाव भवस्थित हैं ॥२०७॥
१शन. २ उश कोटी. इ माण. ४५ व विसंतरगमणपरिहत्या. ५ शरितिक परदेवि वि. ६ पुटियन, पप गिरंग, श फरिदग्ग. ७ पब अरकेस या.
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