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तिलोपपण्णत्तिका गणित
( ६ ) दिनमान प्रमाण सम्बन्धी प्रक्रिया में, पितामह सिद्धान्त का जैन प्रक्रिया से प्रभावित प्रतीत होना ।
(७) छाया द्वारा समय निरूपण का विकसित रूप इष्ट काल, भयाति आदि होना ।
यहाँ मन्सर ( सम्भवतः ५००-७०० ईस्वी पश्चात् अथवा इससे कुछ पूर्व १ ) के शिल्प शास्त्र पर आधारित भी पिल्लई के खोजपूर्ण ग्रन्थ, “The way of the Silpis” ( 1948 ) में वर्णित ज्योतिष सम्बन्धी खोजों का उपर्युक्त के साथ तुलनात्मक अध्ययन सम्भवतः उपयोगी सिद्ध हो ।
इनके अतिरिक्त आतप और तम क्षेत्र तथा चक्षुस्पर्शध्वान सम्बन्धी कथन, गणना के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। इन सब अवधारणाओं के हेतुओं का सिद्धान्तबद्ध स्पष्टीकरण करना, इस दशा में अशक्य है ।
मुख्यतः त्रिलोकप्रशति विषयक गणित का यह कार्य, परम श्रद्धेय डॉ. हीरालाल जैन के सुसंसर्ग में समय समय पर प्रबोधित होकर रचित हुआ है। उनके प्रति तथा जिन सुप्रसिद्ध निस्पृही लेखकों के ग्रंथों की सहायता लेकर यह कार्य किया गया है उनके प्रति भी हम आभार प्रकट करते हैं।
निर्देशित ग्रंथ एवं ग्रंथकारों की सूची
(१) भी यतिवृषभाचार्य विरचित तिलोय पण्णत्ती भाग १, २.
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ति. प, ३
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सम्पादक प्रो. हीरालाल जैन, प्रो. ए. एन्. उपाध्ये, १९४२, १९५०.
(२) भी धवला टीका समन्वित षट्खंडागम पुस्तक ३, पुस्तक ४. सम्पादक हीरालाल जैन, १९४१, १९४२.
(३) A History of Geometrical methods, by Julian Lowell Coolidge Edn. 1940.
(४) A History of Greek Mathematics, part I & II. by sir thomas Heath, Edn, 1921. (५) History of Hindu Mathematics, Part I & II.
by Bibhutibhusen Datta, & Awadhesh Naryan singh, Edn. 1935, 1938. (E) Abstract Set theory, by Abraham A. Fraenkel, Edn. 1953.
() The Mathematical Theory of Relativity by A. S. Eddington Edn, 1923.
(c) The Development of Mathematics by E. T. Bell. Edn. 1945.
(९) तत्त्वार्थरामवार्तिक, 'श्री अकलंकदेव'
(१०) Relativity and commonsense.
by F. M. Denton.
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