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तिलोय पण्णत्ती
( प्रथम महाधिकार गा. ९१ )
श्रेणी का मान ७ राजू होता है। राजू एक असंख्यात्मक दूरी का माप है। इसीलिये जगश्रेणी को दर्शाने के निमित्त ग्रंथकार ने प्रतीक की स्थापना की जो कि अंग्रेजी के Dash (-) के समान है। इस जगश्रेणी का घन करने पर लोकाकाश का घनफल प्राप्त होता है। जगश्रेणी का घन ग्रंथकार ने एक के नीचे एक स्थापित तीन आदी रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया है (E) इन तीन आड़ी रेखाओं का अर्थ तीन नगश्रेणी नहीं, किन्तु जगश्रेणी का घन होता है । परस्पर गुणन के लिये यह प्रतीक असाधारण है । = १६ ख ख ख इस प्रतीक के स्पष्टीकरण का निम्न प्रकार से अनुमान किया जा सकता. है। = यह लोकाकाश की स्थापना है जो एक (१) है। लोकाकाश स्थापना १ के बाद है। तत्पश्चात् ख ख ल की स्थापना अनंतानंत बहुमध्य भाग में यह लोकाकाश स्थित है। बहुमध्य भाग के कथन से नन्ते रूप में विस्तृत आकाश का मध्य निश्चित किया जा सकता है। बिलकुल ही अनिश्चित प्रमाण नहीं माना गया, जैसी कि आज के गणितशों की धारणा है। ।
सहित पांच द्रव्य ६ हुए, जिसकी अलोकाकाश के लिये है, जिसके यह अर्थ निकलता है कि अनन्तातात्पर्य यह कि अनन्तान्त एक
(गा. १, ९३ - १३२ ) [
जो कि एक दिश माप ( Linear Measure ) दूरत्व के माप के लिये उवसन्नासन्न नाम से प्रसिद्ध एक दूरत्व की इकाई ( Unit ) माना गया है। इस स्कंध की रचना नाना द्रव्यों से होती मानी गई है। इस स्कंध के अविभागी अंश को भी परमाणु
जगश्रेणी का प्रमाण प्रदर्शित करने के लिये है ], अन्य ज्ञात मापों की परिभाषायें दी गई हैं। स्कंध अथवा उसके विस्तार को प्रकार के अनन्तानन्त परमाणु
१ इस सम्बन्ध में आक्सफोर्ड के प्रसिद्ध गणितज्ञ F. H. Bradley के विचार निम्न प्रकार हैं
"We may be asked whether Nature is finite, or infinite if Nature is infinite, we have the absurdity of a something which exists, and still does not exist. For actual existence is, obviously, all finite. But, on the other hand, if Nature is finite, then Nature must have an end, and this again is impossible. For a limit of extension must be relative to an extension beyond, And to fall back on empty space will not help us at all. For this (itself a mere absurdity) repeats the dilemma in an aggravated form. But we can not escape the conclusion that Nature is infinite. Every physical world is essentially and necessarily infinite." The Encyclopedia Americana, Vol. 15, p. 121, Edn. 1944,
"With the intrusion of irrational numbers to disrupt the integral harmonies of the Pythagorean cosmos, a controversy that has raged of and on for well over two thousand years began: is the mathematical infinite a safe concept in mathmatical reasoning, safe in the sense that contradictions will not result from the use of this infinite subject to certain prescribed conditions (The 'infinities' of religion and philosophy are irrelevant for mathematics )"-Development of Mathematics, E. T. Bell, Page 548,
३ अंथकार द्वारा प्रतिपादित परमाणु का अर्थ अन्यथा न ले लिया जाये, तथैव श्री जी. आर. जैनी की Cosmology Old and New के ९४ वें पृष्ठ पर दिया गया यह अवतरण पढ़ना लाभदायक होगा - "It follows that a paramanu can not be interpreted and should not be inter
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