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जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना pressed in a small sphere the whole of the cirole which the aether embraces."
पुनः, निम्न लिखित अवतरण विचारणीय है:
"As regards the distances of the sun, moon and planets Plato has nothing more definite than the seven oiroles ‘in the proportion of the double intervals, three of each'' : the reference is to the Pythagorean tetsaxtyo represented in the annexed figure,... what precise estimate of relative distanoos Plato / 27 based upon these figures is uncertain."
_ विविध गणनायें, गणित के प्रसंगानुसार, सुव्यवस्थित एवं उपयुक्त है। ग्रहों के सम्बन्धमें, उनके गमनविषयक शान का कालवध विनष्ट होना बतलाया है, तथापि वह अपोलोनियस तथा हिपरशस की खोली के आधार पर व्यवस्थित हो सकता है। जैनाचार्यों के चांद्र दिवस व मास के समान यूनान में भी एरिस्टरशस (Aristarchus) द्वारा २८१ अथवा. ई. पू. में, और हिपरशस द्वारा १६१ ई.पू.१२६ ई.पू. में चंद्र मास और चंद्र वर्ष की गणनाएं की गई थी। इसके सम्बन्ध में निम्न लिखित विचार पठनीय है।
"We now learn that the length of the mean synodio, the sidereal, the anomalistic and the draconitio month obtained by Hipparchus agrees exactly with Babylonian cuneiform tables of date not later than Hipparchus, and it is clear that Hipparchus was in full possession of all the results established by Babylonian astronomy."
परन्तु ; बहां तक पायथेगोरियन युग के बाद की (प्लेटो कालीन एवं उपरांत के) ज्योतिष का सम्बन्ध है, तिलोय-पण्णत्ती सदृश मूल ग्रंथ, उस यूनानी ज्योतिष के प्रभाव से सर्वथा अछते दृष्टिगत होते हैं। साथ ही, ऐसे ज्योतिष मूल ग्रंथों के भारतीय ज्योतिष के लिये प्रदत्त अंशदान सम्बन्धी विवेचन के लिये पाठकगण, पं० नेमिचंद्र जैन ज्योतिषाचार्य द्वारा लिखित "भारतीय-ज्योतिष का पोषक जैन-ज्योतिष" नामक लेख (जो 'वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ सागर में प्रकाशित हुआ है) देख सकते है। इस लेख में सुविश लेखक मुख्यतः निम्न लिखित निष्कर्षों पर पहुंचे प्रतीत होते हैं।
(१) पञ्चवर्षात्मक युग का सर्व प्रथमोल्लेख जैन ज्योतिष-ग्रंथों में प्राप्त होना । (२) अवम-तिथि क्षय सम्बन्धी प्रक्रिया का विकास जैनाचार्यों द्वारा स्वतन्त्र रूप से किया जाना ।
(३) जैन मान्यता की नक्षत्रात्मक ध्रुवराशि का वेदाङ्गज्योतिष में वर्णित दिवसात्मक ध्रुवराशि से सूक्ष्म होना तथा उसका उत्तरकालीन राशि के विकास में सम्भवतः सहायक होना ।
(४) पर्व और तिथियों में नक्षत्र लाने की विकसित जैन प्रक्रिया, जैनेतर ग्रंथों में छठी शती के बाद दृष्टिगत होना।
(५) जैन ज्योतिष में सम्वत्सर सम्बन्धी प्रक्रिया में मौलिकता होना ।
THoath rol. (i)P.163.
Heath vol. I. P.313. ३ Hoath vol. (i) PP.264,265.
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