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तिलोयपण्णत्तिका गणित नहीं आई है। उस विधि से, घनफल निम्न लिखित श्रेदि का योग निकालने पर प्राप्त होता है जो बिलकुल ठीक है,
र (न्याम) उत्सेध + (प. व्या,.उ. व्या २८ व्या १)
व्या -व्या, उ व्या,-व्या..
३. व्या३ - व्या)+ 'असंख्यात तक, क्योकि भविभागप्रविच्छेदों की संख्या, अंतिम प्रदेश प्राप्त करने तक अनन्त नहीं हो सकती है। हम अभी नहीं कह सकते कि यह विदारण विधि यूनानियों की विधियों के आधार पर है अथवा सर्वथा मौलिक है। बीरसेन ने क्षेत्र प्रयोग विधि के आधार पर जो बीजीय समीकारों का रैखिकीय निरूपण दिया है वह मी क्या यूनानसे लिया गया है, यह भी हम नहीं कह सकते; क्योंकि हो सकता है कि पारपरिमित गणात्मक संख्याओं के निरूपण के लिये ये विधियां भारत में पहिले भी प्रचलित रही हो।
ज्योतिष सम्बन्धी एवं अन्य गणनायें त्रिलोक संरचना के विषय में कुछ भी कहना विवादास्पद है। यहाँ केवल दरियों के कथन तथा बिम्बों के अवस्थित एवं विचरण सम्बन्धी विवरण, पूर्वापर विरोध रहित एवं सुव्यवस्थित रखे गये हैं। रज्जु के कितने अच्छेद लिये जावे, इस विषयमें वीरसेन अथवा यतिवृषभ ने बिम्बों के कुल प्रमाण को परम्परागत ज्ञान के आधार पर सत्य मान कर, परिकर्म नामक गणित ग्रंथ में दिये गये कथन में 'रूपाधिक' का स्पष्टीकरण किया है। यह विवेचन वीरसेन अथवा यतिवृषमकी दक्षता का परिचय देता है। सातवें महाधिकार में चंद्रमा के बिम्ब की दूरी एवं विष्कम्भ के आधार, आंख पर आपतित कोण का माप आधुनिक प्राप्त सूक्ष्म मापों से १० गुणा हीन है"। गोलार्द्ध रूप चंद्रमा आदि के बिम्बों का मानना, उनकी अवलोकन शक्ति का द्योतक है, क्योंकि ये बिम्ब सर्वदा पृथ्वी की ओर केवल वही अर्द्धमुख रखते हुए विचरण करते हैं। सूर्य के विषय में आधुनिक धारणा धब्बों के आधार पर कुछ दूसरी ही है। उष्णतर किरणों तथा शीतल किरणों का क्या अर्थ है, समझ में नहीं आ सका है। इनका अर्थ कुछ और होना चाहिये, जिनके अधार पर, चंद्रमा आदि के गमन के कारण ही उसकी कलाओं का कारण सम्भवतः प्रकट हो सके (१) वृहस्पति से दूर मंगल का स्थित होना आधुनिक मान्यता के विपरीत है। गाथा ११७ आदि में समापन और असमापन कुंतल (Winding and Unwinding Spiral ) में चंद्र और सूर्य का गमन, सम्भव है, आर्क मिडीज के लिये कुंतल के सम्बन्ध में गणना करने के लिये प्रेरक रहा हो।
पाययेगोरस के विषय में किसी सिकंदरियाके कवि ने प्रायः ३०० ई.पू. में कहा है
“What inspiration laid forceful hold on Pythagoras when he discovered the subtle geometry of (the heavenly ) spirals and com
१ षटखंडागम पु. ४, पृ. १५. २ षटखंडागम पु. ३, पृ. ४२-४३. ३ ति.प.७,३९.
४ Heath vol (ii) 64. तथा मन्सर के शिल्प शास्त्र के आधार पर लिखे गये ग्रंथ, The way of the Silpis" by G.K. Pillai (1948) के शिल्पीसूत्र में इस कुन्तल को द्यग्रस्थ सिद्ध किया गया है।
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