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________________ अटीवपतिकी प्रस्तावना साध्य के आधार पर इस सूत्र का होना उपयुक्त है। धनुष के सम्बन्ध में बैनाचारों द्वारा दिया गया सूत्र का/१० मान लेने के आधार पर है, वो बेबीलोन में अप्राप्य प्रतीत होता है। सूत्रों की ऐसी क्रमबद्धता के आधार पर, मुझे ऐसा प्रतीत होता है मानो Caneiform texts' की विधि २६०० वर्ष ईस्वी पूर्व निश्चित करना शंकास्पद है।।१० का मान रखकर, उपयुक्त दो समीकारों द्वारा, कुछ ऐसे सम्बन्ध प्राप्त किये पा सकते हैं जो हाइजिन्स ने धनुष और बीवा के बीच, टेलर के साध्य के आधार पर प्राप्त किये है। आश्चर्य है कि महावीराचार्य ने इन सूत्रों को कुछ दूसरे ही रूप में दिया है। धनुष की लम्बाई =V५ (बाण) + (बीवार अवधा के क्षेत्रफल निकालने के लिये महावीराचार्य ने यो सूत्र दिया है, क्षेत्रफल =(जीवा + वाण) वह चीन में चिठ-चांग सुआन चु (Chiu-Chang suan-dhu) अथ से लिया गया प्रतीत होता है, जिसकी तिथि पुस्तकों के बलाये जाने की घटना के कारण निर्णीत नहीं हो सकी है। वहां, उनसे भी पूर्व के अंथ तिलोय-पण्णची में धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल वापरावा/० रूप में प्राप्त होना आचर्यजनक है ।घूनान में, सिकन्दरिया के हेरन ने, इनके प्रमाण और कुछ प्राप्त किये हैं। .... इनके पश्चात् महत्वपूर्ण सूत्र अनुपात सिद्धान्त (Theory of proportion) सम्बन्धी है। यतिवृषभ ने इन्हें, गाथा १७८१ (महाधिकार चौथा), से लेकर गाथा १७९७ तक शंकु समच्छिन्नकों (frustrums of oone) की पार्श्वभुजाओं (Slant lines) के सम्बन्ध में व्यक्त किये हैं । इनके सिवाय, वेत्रासन तथा अन्य आकार के वातवलय सम्बन्धी क्षेत्रों (लोक का वेष्टन करनेवाले क्षेत्रों ) निकालने में बो विरूपण दिया है वह सिकन्दरिया के हेरन (ईसा की तीसरी सदी) के Baptox00 सम्बन्धी घनफल के निरूपण की तुलना में किसी प्रकार कम नहीं है। इसके आधार पर वेत्रासन (छोटी वेदी) सदृश आकार के समंद्रों का वर्णन अन्य धर्मग्रंथों में भी मिलना मनोरंजक है, और उनमें सम्बन्ध स्थापित करना इतिहासकारों का कार्य है। पुनः लोक का घनफल विभिन्न आकारों के क्षेत्रों में व्यक्त करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जो पायथेगोरियन कालीन विधियों से सम्पर्क स्थापित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। चौये अधिकार में गाया २४०१ आदि का निरूपण हेरन की Anchoring या tore की स्मृति स्पष्ट करती है। हेरन ने एक समच्छिनक का घनफल दो विधियों से निकाला है, परन्तु वीरसेन ने शंक्वाकार मृदंग रूप लोक की धारणा को अन्यथा सिद्ध करने के लिये जिस विधि का प्रयोग किया है, वह अन्यत्र देखने में Coolidge P. 7. २ चम्बूदीपप्रशप्ति में इसका मान V६ (बाण) + (जीवा) दिया है (२-२८, ६-१०). गणितसारसंग्रह अध्याय ७, सूत्र ४३. .. ३ ति. प. ४, २३७४. ४ Heath vol. (II) PP. 330, 331. ५ जम्बूद्वीपप्रशप्ति ३।२१३-२१४; ४१३९, १३४-१३५, १०।२१, १।२८. ६ चम्बूद्वीपप्रशप्ति में इस सम्बन्ध में दी गई विधि तिलोयपण्णची में दी गई विधि के समान है (११-१०९). ७ गाथा २७० आदि, प्रथम महाधिकार! ८ Heath vol. (ii) P. 334, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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