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जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना पूर्वक उल्लेख कर दिया गया है। यहां पूर्वके आगे ये काळभेद लतांग, लता, महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन इत्यादि रूपसे भिन्न ही पाये जाते हैं। जंबूदीवपण्णत्तीमें उपर्युक्त दोनों बातोंका उल्लेख न होनेसे उनका यथार्थ स्वरूप नहीं जाना जाता है। यह उपेक्षा प्रकृत कालभेदों विषयक विविध मतभेदोंको लक्ष्यमें रखकर बुद्धिपुरस्सर ही की गयी प्रतीत होती है।
(८) इसके पश्चात् ज्योतिष्करण्डमें यह गाथा आती है जो जं. प. की गा. १३, १५ से बहुत कुछ समानता रखती है
एसो पण्णवणिज्जो कालो संखेजओ मुणेयव्यो।
वोच्छामि असंखेज कालं उवमाविसेसेणं ॥ ७२॥ (९) आगे जं. प. में तीन (१६-१८) गाथाओंके द्वारा परमाणुका स्वरूप बतलाया गया है। इनमें प्रथम गाथा 'अंतादिमज्झहीणं' आदि सर्वार्थसिद्धि (५-२५) में भी उधृत रूपसे उपलब्ध होती है। तीसरी गाथा 'सत्येण सुतिक्खेण' आदि ज्योतिष्करण्ड (७३) में प्रायः ज्योंकी त्यों उपलब्ध होती है।
स्थानमें 'पमाणाणं' पाठ है जो परमाणुको आगेके अंगुल आदि रूप अन्य सब प्रमाणोंका आदिभूत प्रगट करता है । यह अभिप्राय ‘पमाणेण' पदसे उपलब्ध नहीं होता।
इस गाथाका पूर्वार्द्ध तिलोयपण्णत्ती ( १-९६ ) में भी पाया जाता है। वहां 'किर ण सक्क' के स्थानमें 'किरस्सक' पाठ है ।
प्रकृत गाथामें जो परमाणुका लक्षण किया गया है वह टीकाकार श्री मलयगिरिके अभिप्रायानुसार अनन्त सूक्ष्म परमाणुओंके संघातसे उत्पन्न हुए व्यावहारिक परमाणुका लक्षण किया गया है । इसकी पुष्टिमें टीकाकार द्वारा अनुयोगद्वारसूत्रका उल्लेख किया गया है । इस व्यावहारिक परमाणुकी मान्यता सम्भवतः किसी अन्य दि. ग्रन्थमें नहीं है । किन्तु जंबूदीवपण्णत्तीके कर्ताने गा. १३-२१ में उसकी निष्पत्ति आठ सन्नासन्नों द्वारा स्पष्टतया स्वीकार की है जो तिलोयपण्णत्ती (१,१०४) और तत्त्वार्थवार्तिक (३,३८.७) आटिकी मान्यताके विरुद्ध है । इन ग्रन्थोंमें आठ सन्नासन्नोसे एक त्रुटिरेणुकी निष्पत्तिका उल्लेख किया गया है। किन्तु जंबूदीवपण्णत्तीमें त्रुटिरेणुका कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है।
. (१०) गाथा १३,२२ ठीक इसी रूपमें ही ज्योतिष्करण्डमें पायी जाती है। इसमें परमाणु पदसे पूर्व गाथामें निर्दिष्ट व्यावहारिक परमाणुको ग्रहण किया गया है , अन्यथा यह क्रम पूर्वोक्त (गा. १९-२१) क्रमके विरुद्ध पड़ता है। ज्योतिष्करण्डमें यह गाथा 'सत्येण सुतिखेण ' आदि पूर्वोक्त गाथाके अनन्तर ही पायी जाती है ।
(११) तेरहवें उद्देशकी ३५, ३७, ३८, ४१ और ४२ वीं गाथायें ज्योतिष्करण्ड में क्रमशः निम्न संख्याओंसे अंकित पायी जाती हैं-७८, ७९, ८१, ८२ और ८३ । इनमें अन्तिम गाथाको छोड़कर शेष ४ गाथायें चूंकि त्रिलोकसारमें भी उपलब्ध हैं, अत: उनके पाठभेद आदिके सम्बन्धमें वहींपर (पीछे पृ. १२८-२९) सूचना कर दी गयी है। अन्तिम गाथाका पूर्वार्द्ध दोनों में समान है। उत्तरार्द्ध में कुछ थोडासा ही भेद है जो इस प्रकार है
ओसप्पिणीय कालो सो चेवुस्सप्पिणीए वि ।। जं. प.
ओसपिणीपमाणं तं चेवुस्सप्पिणीए वि || ज्यो. क.
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