________________
अन्य ग्रंथोंसे तुलना
१३५
दूसरी गाथा (११०) दोनोंमें समान रूपमें ही पायी जाती है । विशेषता यह है कि उपर्युक्त ज्योतिष्करण्डकी गाथामें जो 'एत्तो ताराविमे सुसु' कहकर आगे ताराओंके प्रमाण के कहने की जो प्रतिज्ञा की गयी है उसीका निर्वाह अगली गाथा द्वारा होनेसे वहां इस दूसरी गाथाकी स्थिति दृढ़ है । इन दोनों गाथाओं के पहिले जंबूदीवपण्णत्ती में जो 'बे चंदा वे सूरा' आदि गाथा ( १०८ ) है वह बृहत्क्षेत्रसमास में भी कुछ नगण्य परिवर्तनके साथ इस प्रकार उपलब्ध होती है
दो चंदा दो सूरा नक्खत्ता खलु हवंति छप्पन्ना । छावत्तरं गहसयं जंबूद्दीवे वियारीणं ॥ १-३९५.
इससे आगेकी गाथामें यहां जंबूद्वीपमें संचार करनेवाले ताराओं की समस्त संख्याका निर्देश किया गया है। यहां इन दोनों गाथाओं की स्थिति आवश्यक प्रतीत होती है। इसका कारण यह है कि बृहत्क्षेत्रसमासके पांच अधिकारों से यहां प्रथम जंबूद्वीपाधिकार समाप्त होता है। अतः पूर्व में समस्त क्षेत्र पर्वतादिकोंकी प्ररूपणा करके अन्तमें जंबूद्वीपमें अवस्थित ज्योतिर्गणका भी कुछ न कुछ उल्लेख करना आवश्यक ही था। परन्तु जंबूदीवपण्णत्ती में ऐसी आवश्यक स्थिति इन गाथाओंकी नहीं प्रतीत होती, कारण कि यहां प्रकारान्तरसे इस अर्थकी प्ररूपणा इससे पूर्वमें ८७ और ८८वीं गाथाओंके द्वारा की ही जा चुकी थी ।
( ६ ) गाथा १३, ४ दोनों ग्रन्थों में इस प्रकार है
कालो परमणिरुद्धो अविभागी तं विजाण समओ ति । सुमो अमुत्ति-अगुरुगल हुवत्तणलक्खणो कालो ॥ जं. दी.
X
x
X
कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु ।
समया य असंखेजा वह हु उस्सासनिस्सासो | ज्यो. क. ८८.
जहां तक हम इन दोनों गाथाओंकी शब्दरचनापर ध्यान देते हैं तो हमें ज्योतिष्करण्डकी यह गाथा जैसी प्रकरणसंगत प्रतीत होती है वैसी जंबूदीवपण्णत्तीकी नहीं प्रतीत होती । इसका कारण यह है कि ज्योतिष्करण्डकी गाथा पूर्वार्द्धमें समयका लक्षण बतलाकर आगे उसके उत्तरार्द्ध द्वारा उच्छ्वासनिःश्वासके लक्षणकी प्ररूपणा की गयी है। यहां आवलीका उल्लेख मूलमै नहीं है, पर टीकाकारने उसका उल्लेख कर दिया है । परन्तु जंबूदीवपण्णत्तीकी उक्त गाथाके पूर्वार्द्ध में समयका लक्षण बतलाकर आगे उत्तरार्द्ध में कालका लक्षण बतलाया गया है । इसके आगे कुछ गाथाओं द्वारा फिर आवली आदि अन्य कालभेदोंकी प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार बीचमें जो कालका स्वरूप बतलाया गया है वह जहां गाथा २ में कालके व्यवहार और परमार्थ ये दो भेद बतलाये गये हैं वहां यदि बतलाया जाता तो अधिक उपयोगी होता ।
Jain Education International
( ७ ) गाथा १३, ११-१२ दोनों ग्रन्थोंमें समान रूपमें ही पायी जाती हैं। इनमें जो कुछ थोड़ासा भेद है भी वह उल्लेख योग्य नहीं है। 'चुलसीदिगुणं हवेज ' के स्थानमें जो ज्योतिष्करण्ड में 'चुलसीहगुणाई हो ' पाठ है वह व्याकरणकी दृष्टिमें ग्राह्म ही प्रतीत होता है । दूसरी नाथा ( १३, १२) सर्वार्थसिद्धि ( ३, ३१ ) में भी उद्धृत देखी जाती है।
आगे जंबूदीवपण्णत्ती (१३ व १४ ) और ज्योतिष्करण्ड (६४-७१) दोनों ही ग्रन्थोंमें पूर्वसे आगेके कालभेदोंका निर्देश किया गया है। विशेषता यह है कि जहां जंबूदीवपण्णत्ती में अंगान्त ( पर्योग-नयुतांग आदि) भेदों और उनके गुणकारका कुछ भी उल्लेख नहीं हुआ है वहां ज्योतिष्करण्डमें उन दोनोंका स्पष्टता
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org