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________________ जंबूदीपतिकी प्रस्तावना यहां कुछ ऐसी अनेक गाथायें हैं जो जंबूदीवपण्णत्ती और ज्योतिष्करण्ड दोनों ही ग्रन्थोंमें समान रूपमें पायी जाती हैं । यदि कहीं कुछ विभक्तिभेद या शब्दभेद है भी तो वह नगण्य ही है। कितनी ही परम्परागत प्राचीन गाथाओंके उपलब्ध रहनेसे हालमें उनके पूर्वापरक्रमको स्थिर करना कुछ अशक्यसा है । फिर भी भविष्य में अन्वेषणकर्ताओंके लिये यह उपयोगी सामग्री बन सके, इसी विचारसे उनको तुलनात्मक दृष्टिसे यहां उपस्थित किया जाता है । दोनों ग्रन्थोंमें उपलब्ध समान गाथायें १३४ जं. प. ज्यो.क. २,२४ २,१११ १८१ ६,९ ८५ १८० १२, १०६ १२, १०९ १२, ११० १३,४ १३, ११-१२ ८८ ६२-६३ १२० १२३ १२४ १३, १५ १३, १८ १३, २२ १३,३५ १३, ३७ १३,३८ १३,४१ १३,४२ ७२ ७३ ७४ ७८ ७९ ८१ ८२ ८३ (१) गाथा २,२४ में प्रयुक्त शब्द दोनोंमें समान हैं, किन्तु वे परिवर्तित रूपमें हैं । यह गाथा ज्योतिष्करण्डके अनुसार बृहत्क्षेत्रसमास ( १,३९ ) में भी पायी जाती है । (२) गा. २,१११ ज्योतिष्करण्डमें इस प्रकार है सुमसुसमा य सुसमा हवई तह सुसमदुस्समा चैष । दूसमसुसमा य तहा दूसम अइदुस्समा चेव ॥ ८५ ॥ आगे दोनों ग्रन्थों ( जं. प. ११२-११४ और ज्यो. क. ८६-८७ ) में इन कालोंके प्रमाणकी प्ररूपणा समान रूपसे की गई है । (३) गाथा ६,९ कुछ थोडेसे परिवर्तनके साथ ज्योतिष्करण्ड ( १८० ) और बृहत्क्षेत्रसमास ( १,३६ ) में इस प्रकार पायी जाती है ओगाहूणं विक्खंभमो उ उग्गाहसंगुणं कुब्बा | चउहि गुणियस्स मूलं मंडलखेत्तस्स अवगाहो ॥ बृहत्क्षेत्रसमास में 'अवगाहो' के स्थान में 'सा जीवा' पाठ है। ज्योतिकरण्डमें यद्यपि 'अवगाहो' पाठ है, परन्तु टीकाकार श्री मलयगिरिने 'जीवा' पदको लक्ष्यमै रखकर ही उसकी टीका की है । यथास ' मण्डलक्षेत्रस्य' वृत्तक्षेत्रस्य प्रस्तावादिह जम्बूद्वीपस्य सम्बन्धिनो विवक्षितस्यैकदेशस्य भरतादेरारोपित'धनुराकारस्य जीवा प्रत्यंचा भवति । ये ही टीकाकार बृहत्क्षेत्रसमासके भी हैं। Jain Education International इससे मिलता-जुलता करणसूत्र त्रिलोकसारमै इस प्रकार है - इसुहीणं विक्खभं चउगुणिदिणा हदे दु जीवकदी ( ७६० का पूर्वार्ध ) । (४) गा. १२,१०६ दोनोंमें समान स्वरूपमें ही अवस्थित है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जंबूदीपण्णत्ती में इस अभिप्रायको प्रगट करने वाली एक और भी गाथा ( १२, १४ ) पूर्वमें दी जा चुकी है। (५) गा. १२, १०९-१० में प्रथम गाथा ज्योतिष्करण्ड में इस प्रकार हैनक्खत्तट्ठावीसं अट्ठासीई महग्गहा भणिया । एससी परिवारो एत्तो ताराविमे सुणसु ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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