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[पंचमो उद्देसो]
णमिऊण सुपासाजिणं सुरिंदवइसंथुवं विगयमाई। मंदरजिणवरभवणं जहाकम तं परूवेमि ॥" संखिंदुकुंदधवलो मणिगणकरजालखवियतिमिरोहो । जिणईदपवरभवणो तिहयणविकमो ति णामेण || पण्णत्तरिउच्छेहो पण्णासायाम तह य विक्खंभो । पुग्णिदुमंडलणिभो गंधकुरी दिवपासादे' ॥३ सोलसजायणतुंगा अद्वैव य वित्थडी समुट्ठिा । वित्थारसमपवेसा तस्स दु दाराण परिसंवा ॥१ भंदरगिरिपढमवणे चत्तारि हवंति चदुसु वि दिसासु । जिणईदाणे भवणा गणाइणिहणा समुचिट्ठा ॥ ५ जोयणपयभायामा तदर्खेत्रित्यार उभयदलतुंगा। उग्गाढ श्रद्धजोयण रयदमयाभित्तिजिणगेहा ॥ जिणभवणस्सवगावं दिवढसयसंगुणेग जं लद्धं । तं उच्छेदं दिट्ट पठमवणे जिणघराणं तु ॥ ७ गुणगारेण विभत्तं उच्छे इं जिणघराण जलद्धं । तं भवगाणेयं समासदो होह णिबिटुं॥ महवा मायामे पुण विक्खंभं पक्खिवित्तु अद्धकदे । जो लद्धो सो णेभो उच्छेहो सम्वभवणाणं ॥
सुरेन्द्रपतियोंसे संस्तुत और मोहसे रहित सुपार्श्व जिनेन्द्रको नमस्कार करके क्रमानुसार उस मन्दर पर्वतस्थ जिनभवनका निरूपण करते हैं ॥१॥ त्रिभुवमतिलक नामक वह जिनेन्द्रभवन शंख, चन्द्र और कुंद पुष्पके समान धवल तथा मणिगणोंके. किरणसमूहसे अन्धकारसमूहको नष्ट करने वाला है ।। २ ।। उस दिव्य प्रासादमें पचत्तर [ योजन ] ऊंची एवं पचास [ योजन ] आयाम व विष्कम्भसे सहित पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान गन्धकुटी है ॥ ३ ॥ इसके द्वार सोलह योजन ऊंचे, आठ योजन विस्तृत और विस्तारके समान प्रवेशसे सहित हैं, यह उसके द्वारों का प्रमाण है ॥ ४ ॥ मन्दर पर्वतके प्रथम वनमें चारों ही दिशाओंमें अनादिनिधन चार जिनेन्द्रभवन कहे गये हैं ।। ५॥ रजतमय भित्तियोंसे संयुक्त ये जिनगृह सौ योजन आयत, उससे आधे अर्थात् पचास योजन विस्तृत, आयाम व विस्तारके सम्मिलित प्रमाणसे आधे (१०+५० = ७५ यो. ) ऊंचे, तथा अर्थ योजन प्रमाण अवगाहसे सहित हैं ॥ ६ ॥ जिनभवनके अत्रगाहको डेढ़ सौसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उतना (Ext. ७५) प्रथम वनमें स्थित जिनगृहोंका उत्सेघ कहा गया है ॥७॥ उक्त गुणकारका उत्सेघमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना जिनगृहोका अवगाह जानना चाहिये, ऐसा संक्षेपसे निर्दिष्ट किया गया है ॥८॥ अथवा, आयाममें विष्कम्भको मिलाकर भाषा करनेपर जो प्राप्त हो वह सब भवनोंका उरसेघ जानना चाहिये ( देखिये ऊपर गा. ६)॥९॥
१उश'पासादो, पब 'पासाहो. २उश अटेव य जो विस्था..पब जिणयंदाणं. ४श बध, ५पब अवगाई.
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