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________________ ८६) जबूदीवपण्णत्ती [.. २८५रयणकलसेहि तेहि य खीरोदसुगंधसलिलपुण्णा । मुरचंति जिणाणुवरि एगीभूया सुरा सम्वे ॥ २८. जई से धारावरणा परवदसिहरे पडंति वेगेण । तो सो पध्वदसिहरो सयखंडो' तक्खणे होइ ॥ २८५ सम्वे वि जिणवरिंदा भणतीवरिया भणतमाहप्पा । ते पुण धारावडणा मण्णति कुसग्गपिंदु म ॥ २४॥ पमहक्कसंखकाहलमुर्दिगणिवहेहिं कसतालेहिं । मल्लरिभेरीहि सहा दुंदुहिसदेहि विधिहहि ॥ २८७ महलतिधलीहिं तहा भेरीस देहि उवहिघोसेहि । जयघंटरवेहिं पुणो भंभारवमेघरावहिं ॥ २८८ पडपडहरवेहि वहा सायरगंभीरसहणियहिं । वजंतर्राणिवह फुडियं व सपबदा' धरणी ॥ २८९ पहाविता भत्ती वस्थालंकारभूसिय किच्चा । मणुलिपिऊण पच्छा कुंकुमपंकेहि दिग्वेहि ॥ २९० थोरण जिणवरिंदं थुईहि संभूदगुणविसालाहि । जेणागदी पडिगदा धम्माणुराया सुरा सम्वे ॥२९॥ पंचमणाणसमग्गं पंचमगइदेसयं पउमणाहं । घरपउमणदिमियं वंदे परमप्य सिरसा ॥ १९१ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिसंगहे महाविदेहाहियारे चउरथो उदेसो समतो ॥॥ क्षीरसमुद्रके जलसे परिपूर्ण उन रत्नमय कलशों द्वारा सब देव एकत्रित होकर जिनभगवानोंके ऊपर [ जलधारा ) छोड़ते हैं ॥ २८३-२८४ ॥ यदि वे धारापतन वेगसे पर्वतशिखरपर गिरें तो वह पर्वतशिखर तत्क्षण सौ खण्ड हो जाय ॥ २८५ ॥ अनन्त बल और अनन्त माहत्म्यसे संयुक्त सब जिनेन्द्र उन धारापतेनोंको कुशके अग्र भागपर स्थित बूंदके समान मानते हैं ॥ २८६ ॥ ढक्का, शंख, काहल, मृदंग, इनके समूहसे; कांस्यताल, झालर, मेरी व दुंदुभि, - इनके विविध शब्दोंसे; मर्दल, तिवली तथा समुद्रघोषके समान भेरीशब्दोंसे; पुनः जयघंटाशब्दोंसे, मेघके शब्दके समान भंभाशब्दोंसे, समुद्रके गम्भीर शब्दसमूहके समान पटुषटहके शब्दोंसे, तथा अन्य वाद्यसमूहके बजनेपर मानों पर्वत सहित पृथिवी विदीर्ण हो गई थी ॥ २८७-२८९ ।। इस प्रकार भक्तिपूर्वक नहला कर ब वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत करके पश्चात् दिव्य कुंकुमकका लेपन कर विशाल गुणोंको प्रगट करनेवाली स्तुतियों द्वारा स्तवन करके धर्मानुराग युक्त वे सब देव जिस प्रकारसे आये थे उसी प्रकारसे वापिस चले जाते हैं ॥ २९०-२९१ ॥ पंचम केवल ज्ञानसे सम्पन्न, पंचम गति ( मोक्ष ) के उपदेष्टा और श्रेष्ठ पद्मनन्दि द्वारा नमस्कृत पद्मनाथ जिनेन्द्रको मैं शिरसे नमस्कार करता हूं ॥२९२ ॥ ॥ इस प्रकार जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारका वर्णन करनेवाला चतुर्प उद्देश समाप्त हुआ ॥ १ ॥ पब जय, शप्रतौ 'जाते धारावडणा' इत्येतस्य स्थाने ' जोयण ' इत्येक एवायं शब्दः समुपलभ्यते. पतो सो सम्वदसिहरे सियक्खंडगे, व तो सो सवदसियरे सियक्खंडो ३ उब पयटक, पपपटक्क, श पटक्क. ४ श मरीहि. ५ उशदुंदहि, पब दुदहि. ६उश सदोहि विविहोहि. ७प पहुपह,ब पापहः ८ उ कुटियं व सपध्वदा, शकुड़ियं व सपुम्चदा. ९ उपहाविद्या मितीए, प ण्हाएंता मसीए, ब एहाएता अपीए.श एहावित्ता मित्तीए.१.उश विसालहि... उशनेण गदा, १२ पबदेसिवं. पब सिस्स. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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