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________________ -४. २८३ ) चउत्यो उद्देसो [८५ अवसेसा वि य णेया' णाणाजपाणवाहणारूढा । [ सोहम्मादी जाब दु भच्चुदकप्पं सुरा चलिया ॥२७॥ भवणवहवाणायितरजोइसिया विविवाहणारूढा ।] जिणसासणभत्तिरया महाविहूईहिं ते चलिया ॥ २७५ अहमिदा घि य देवा मासणकंपेण घोहिया संता । गंतूण य सत्तपयं तत्थेव ठिया णमंसंसि ॥ २७६ सेदादवत्तणिवहा वरचामरधुम्बमाण बहुमाणा । णाणापढायचिण्हा बहुविहवरवाहणारूढा ॥ २७७ कंकणपिणहत्या कंठाकडिसुत्तभूसियसरीरा। पजलंतमहामउडा मणिकुंडलमंडियागंडा ॥ २७८ धारविराइयवच्छ। केजरविहूसिया महायाहू । तुडियंगदणवत्था वरवत्थविहूसिया देहा ॥ २७९ अंधड्कुसुममालामलयंदणसुरहिंगंधणिस्तासा । सुकुमालपाणिपादा बहुविवण्णुज्जलेसरीरा ॥ २४. एवं ते देवगणा सागंतूर्ण महाविभूदीए । मंदरगिरिस्त सिहरे वरपंडुवणे विसालम्मि ॥ २८१ सिंहासणेसु णेया गाणामणिविप्फुरंतकिरणेसु । जिणहंदवरकुमारे खीरोदजलेण हार्विति ॥ २८२ जोयणमुवित्थारा अद्वैव य जोयणा सुगंभीरा । भट्ठ सहस्सा कळसा मणिकंचणरयणकयसोदा ॥ २८३ .......................................... ॥ २७३ ॥ सौधर्म कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके शेष देव मी नाना जम्पान (वाहनविशेष) वाहनोंपर चढ़ कर चल देते हैं ॥ २.७५ ॥ भवनवासी, वानप्यन्तर और ज्योतिषी देव भी विविध वाहनोंपर चढ़कर जिनशासनकी भक्ति में रत होते हुए महा विभूतियोंके साथ प्रस्थान करते हैं ॥ २७५ ॥ अहमिन्द्र देव भी आसनके कम्पित होनेसे प्रबोधित होते हुए सात पैर । जाकर वहीं स्थित होकर नमस्कार करते हैं ॥ २७६ ॥ धवल छत्रोंके समूहसे सहित, दुरते हुए उत्तम चामरोंसे संयुक्त, अतिशय आदर सहित, नाना प्रकार पताकाओंके चिह्नोंसे संयुक्त, बहुत प्रकारके उत्तम वाहनोंपर आरूढ़, हाथमें कंकण पहिने हुए, कंठा और कटिसूत्रसे विभूषित शरीरवाले, देदीप्यमान महा मुकुटसे सहित, मणिमय कुण्डलोंसे मण्डित कपोलोंसे संयुक्त, हारसे सुशोभित वक्षस्थलवाले, केयूरसे विभूषित महा बाहुओंसे सहित, त्रुटित ( हाथका एक आभूषण) और अंगद युक्त वेषसे सहित, उत्तम वनोंसे विभूषित देहके धारक, गन्धसे व्याप्त कुसुममाला और निर्मल चन्दनकी सुगन्धित गन्धके समान निश्वासवाले, सुकुमार हाथ व पैरोंसें सहित, और बहुत प्रकारके वर्ण युक्त उज्ज्वल शरीरवाले, इस प्रकारके वे देवगण महा विभूतिके साथ मन्दर गिरिके शिखरपर विशाल व उत्तम पाण्डुक वनमें स्थित नाना मणियोंकी चमकती हुई किरणोंसे सहित सिंहासोंपर श्रेष्ठ जिनेन्द्रकुमारोंको क्षीरसमुद्रके जलसे नहलाते हैं ॥ २७७-२८२ ॥ एक योजन प्रमाण मुखविस्तारसे सहित, आठ योजन गहेर ऐसे मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंसे शोभायमान जो एक हजार आठ कलश होते हैं, १ उवि अणेया, श विणेया. २ उ-शप्रत्यास्त्रुटितोऽयं कोष्ठकस्थः पाठः। ३ उ श सेदादिवत्त, पब सेहाहवत. ४ ब चामरसन्युव्वमाण. ५ उ कंकणपिणट्ट, पब कंकणपिणच, श कंकणह. ६ उशतहा. ७ उश उडियंग. ८ उकुसुमाल,श कुसुममाल. ९ उपब शवशुरुजल. १. ब आणतूणं. १, उ हापिति, प प ण्हावंति, श एइविति.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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