SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [ ४.२६४ नाथ लयपल्लवेहि य मुद्दभंगवियारपायचलणेहि । णच्चति भच्छरामो दक्खिणइंदस्स बहुगीओ ॥ २६४ बम्मदपुष्पाइय' ताओ रद्दरागरइसजणणाई' । रुवाई' अच्छरामो रमयति' अच्छेरयसमाई ॥ २६५ तेहि' कोमलेहि य भंगेहि' भणंगरागजणणेहि । णच्चेति मच्छराओ गईदसर कमलसंडेसु ॥ २६६ एवं ववईभो देवभो णच्चमाण सञ्चाओ । गच्छति पहिहमणा जिणजम्मणमहिमकलाणे ॥ २६७ कोडी सत्तावीसा" अच्छरसाओ' हवंति इंदस्स । भट्ठेव मद्दादेवी लक्खं पुण वल्लहीयाओ ॥ २६८ एयाओ देवीओ भारुहिऊणं गदपटुम्मि । अइआयरजुत्तामो' जम्मणमहिमार गच्छेति ॥ २६९ दक्खिणइंदस्स जहा सत्ताणीयादियाण परिसंख्या । उत्तरई दस्स तहा" परिसंखो होति णायब्वा ॥ २७० ईसानिँदो वि तहा भारुहिऊणं महंत [ वैसहम्मि । महदाइ ढिससुदभो भागच्छइ भत्तिरापुन १" ॥ २७१ सवाणं इंदाणं सत्ताणीया ह-] बंति णिद्दिष्ट्ठा | तिष्णि य परिसा या भसंख तह भादरक्खा " य ॥ २७२ सम्वे वि सुरवरिंदा जम्मणमहिमेण चोइया " संता । सगसगविहूइ सहिया छायंता हयलं एंति ॥ २७३ अप्सरायें लतापल्लबोंसे, मुखभंगविकारसे और पादसंचारसे युक्त नृत्य करती हैं ॥ अप्सरायें मन्मथ ( काम ) के दर्पको उत्पन्न करनेवाले व रतिरागरहस्यके जनक कारक वेषोंको रचती हैं ॥ २६५ उक्त अप्सरायें गजेन्द्रके दातोंपर स्थित कमलसमूह पर कामविषयक रागको उत्पन्न करनेवाले कान्त ( रमणीय ) व कोमल अंगों से माचती हैं ॥ २६६ ॥ इस प्रकार नृत्य करनेवाली उक्त सब रूपवती देवियां मनमें हर्षित होकर जिन भगवान् के जन्मकल्याणक जाती हैं ॥ २६७ ॥ इन्द्रके सत्ताईस करोड़ अप्सरायें, आठ महादेवियां और एक लाख वल्लभायें होती है ।। २६८ || ये देवियां गजराजकी पीठकर आरूढ होकर अति आदर युक्त होती हुई जन्ममहिमामें जाती हैं ॥ २६९ ॥ जिस प्रकार दक्षिण इन्द्रको सात अनीकादिकों की संख्या है उसी प्रकार उत्तर इन्द्रकी सात अनीकादिकोंकी संख्या जानना चाहिये ॥ २७० ॥ उसी प्रकार ईशान इन्द्र भी महान् वृषभपर आरूढ़ हो बड़ी ऋद्धिसे युक्त होकर भक्तिसे यहां आता है इन्द्रोंके सात अनीक होती हैं । इनके अतिरिक्त उनके तीन पारिषद और रक्षक देव होते हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये ॥ २७२ ॥ महिमासे प्रेरित होकर अपनी अपनी विभूतिके साथ आकाशतलको व्याप्त ॥ २७९ ॥ सब असंख्यात आत्म Jain Education International २६४ ॥ आश्चर्य तालाव के १ प ब हदपुरवाई. २ उरहरागरहस, श रहरागरहस. ३ श जवाइ. ४ उश रयेत. ५ श के तिहि. ६ प व अंगहि. ७ प ब कोडी सचवीसा, श कोडीओ तावीसा ८ उश वीसा कोडी अच्छरसाओ. ९ उ अइजहआयारहुताओ, श अहप्रारहुताओ. १० व जह. ११ ब तह. १२ प ब होंति णिदिट्ठा. १३ प-प्रमोस्त्रुदितोऽयं कोष्ठकस्थः पाठः । १४ श मचिणा एव प व आदिरखखा. १६ प ब बोहया. For Private & Personal Use Only १५ सभी इन्द्र जन्मकरते हुए आते हैं www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy