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________________ जबूदीवपण्णत्ती [ ६. २० धुवंतधयवडाया जिणभवणविहूसिया परमरम्मा । माणातरुवरगहणा सुरसुंदरिसंकुला दिवा ॥ २० जमगा णामेण सुरा पलिदोवमआउगा परिषसेति । सेलेसु तेसु णेया मणिकंचणरवणणिवहेसु ॥ २१ अमकूडकंचंणाचल तह चित्तविचित्तकूडसेलेसु। जमदेवकणयणामा चित्तसुरो तह विचितो' य ।। २२ वरमउडकुंडलधरा सियचामरविज्जमाण बहमाणा। सीहासणमझगया बहपरियणपरिउडा गेया॥ २३ गवचंपयगंधड्दा अहिणवलावण्णरूबसंपण्णा । पुणेग जणियभोगा अच्छंति सुराहिवा तेसु ॥ २४ । वे कोसा वासहा जोयण उत्तुंग दिन्वभवणेसु । इगितीसा सक्कोसा विक्खंभायामजुत्तेसु ॥ २५ गंतूण णीलगिरिदो अड्दादिज्जा सहस्स दक्खिणदिसाए । सीदाए सरि मजझे पंचदहा होति पायव्या ।।२६ दसजोयणावगादा आयामा जोयणा सहस्साणि | पंचसदा वित्थारा पंचसदा अंतरेकेक्का ॥ २७ तह णीलवंतपवरो उत्तरकुरुदहवरो दु चंदसरो। एगवयविउलदहो पंचम दह मालवंतो य ॥ २८ वरसुरहिगंधसलिला णीलुप्पलकमलकुवलयसणाहा । रंगंतवरतरंगा संखिदुमुणालसंकासा ॥ २९ फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे संयुक्त, जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, नाना उत्तम वृक्षोंसे गहन और देवांगनाओंसे व्याप्त दिव्य मणिमय प्रासादोंकी पंक्तियां हैं ॥ १९-२० ।। मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंके समूहसे परिपूर्ण उन शैलोंपर पल्योपम प्रमाण आयुवाले यमक पर्वतोंके समान नामोंके धारक देव निवास करते हैं ॥ २१ ॥ यमक्ट व कंचन पर्वत [ मेधकूट ], तथा चित्र-विचित्र शैलोंपर स्थित साढ़े बासठ योजन ऊंचे और सवा इकतीस योजन प्रमाण विष्कम्भ एवं आयामसे युक्त उन दिव्य भवनोंमें उत्तम मुकुट एवं कुण्डलोंके धारक, धवल चामरोंसे वीज्यमान, बहुत आदरसे संयुक्त, सिंहासनके मध्यमें स्थित, बहुत परिवारसे वेष्टित, नव चम्पक जैसी गन्धसे युक्त, अभिनव लावण्यमय रूपसे सम्पन्न, और पुण्यसे उत्पन्न हुए भोगोंसे संयुक्त क्रमसे यम देव, कनक (कंचन) देव, चित्र सुर तथा विचित्र देव, ये चार देवोंके अधिपति देव स्थित हैं ॥ २२-२५ ।। नीलगिरिसे दक्षिण दिशामें अढाई हजार [१००० + १००० + ५०० ] योजन जाकर सीता सरितके मध्यमें पांच द्रह जानना चाहिये ॥ २६ ॥ एक एक द्रह दश योजन गहरे, एक हजार योजन लम्बे, पांच सौ योजन विस्तृत और पांच सौ योजनके अन्तरालमें स्थित हैं ॥ २७ ॥ नीलवान् द्रह, उत्तरकुरु द्रह, चन्द्र द्रह, ऐरावत द्रह और पांचवां माल्यवान् नामक, इस प्रकार ये उन विशाल द्रहों के नाम हैं ॥ २८ ॥ ये महा द्रह उत्तम सुगन्धित जलसे परिपूर्ण, नीलोत्पल, कमल और कुवलय पुष्पोंसे सनाथ, चलती हुई उत्तम तरंगोंसे संयुक्त; शंख, चन्द्रमा एवं मृणालके सदृश, रत्नमय वेदिकासमूहसे १उश चित्तचित्तकुडसलेसु, ब चिनविचत्तकडमेलेमु. २उ श चित्तसुरा. ३उश बिचित्ता. ४ पब बहुमाणं. ५५ ब अढाइसहस्स. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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