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________________ -६. १७८] छटो उद्देसो भोत्तण दिवसोक्खं दसविहतरसंभवं मणभिरामं । कालं काढूण वदो सम्वे देवत्तणमुवित' ॥१७६ . देउत्तरकुरुक्षेत्तं एवं कहियं समासदो भेदा । तत्तो उड्डं गेया सेसाणं वण्णणा होइ ॥ १७७ सीलगुणरयणणिवहसीलफलदेसमं विगदमोई। वरपउमणदिगमियं सीपलणाहं सदा वंदे ॥104 ॥हय अंबदीवपण्णत्तिसंग महाविदेदाहियारे देवकुरु-उत्तरकुलविण्णासपत्यारो' णाम छनो उद्देसो समत्तो ॥६॥ ॥१७॥ वे सब दश प्रकारके वृक्षासे उत्पन्न मनोहर दिव्य सुखको भोग कर मुत्युके पश्चात् देव पर्यायको प्राप्त करते हैं ॥१७६ ॥ इस प्रकार संक्षेपले देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रका कथन किया है । इसके आगे शेष क्षेत्रोंका वर्णन जानना चाहिये ॥ १७७ ।। शीलगुणरूपी रत्नसमूहसे सहित, शीलके फलके उपदेशक, मोहसे रहित, और उत्तम पद्गनन्दिसे नमस्कृत ऐसे शीतलनाथको मैं सदा प्रणाम करता हूं ॥ १७८ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रहमें महाविदेहाधिकारमें देवकुरु-उत्तरकुरु विन्यासप्रस्तार नामक छठा उद्देश समाप्त हुआ ॥ ६ ॥ उश.मुर्दिति. २५ एक्के कहिय, ब यक्के कहियं. ३ पब पण्णतिविथरे. पविण्णाभारो, व विरमणपत्यारो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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