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________________ ११६] जंबूदीवपणसी [ ६.१६६ - पच्छिमदिसे वि या सत्ताणीयाणं सत्त रुक्खा य । महोत्तरसयरखा भट्टसु वि दिखासु से होंति ॥ १६३ पच्छिम उत्तर कोण उत्तरभागे य पुग्धउत्तरदे। सामाणियाण होति हु चत्तारिसहस्स मणिखा ॥ १६७ चारि तुंग' यत्र देवीणं हति चदुसु विदिसासु सन्देसु पायत्रेसु य पासादा होति जायन्त्रा ॥ १६८ सम्बेसु य पासादे जिणपडिमा होति रूपसंपण्णा । सीहासणछत्तत्तयभामंडल संजुना सन्वे ॥ १६९ उत्तरकुरुदेव कुरूने से सु इवंति तेसु जे जादा । मणुया तिकोसउच्चा वरलक्खणकंजणोक लिया || १७० विपणपलिदोषमाऊ तिहिं नहिं दिवसेहि ते दु मुंजंति । वरममिदरसाहारा बदरपमाणेण विदिट्ठा ॥ १७१ वला जवला जादा इत्थी पुरिसा इति ते सध्ये । णस्थि णउंसथवेदा तिरिया कि क होति एमेव ॥ १७२ जे फम्मभूमिजादा दाणं ाऊण उसने पत्ते । मरिऊण ते मणुस्सा जायंति य भोगभूमीसु ॥ १७३ बाडगा मणुस्सा तिरिक्खमम्मि मिच्छभावेण । दाणाणुमोदणेण य कुरुसु ते होंति तिरिया हु || १७४ वे सुसरा सुरूवा मंदकाया पाया । परणारिगणा सम्बे तिरिया वि हवंति णाया ॥ १७५ जानना चाहिये । [ मंत्री व प्रतीहारादि रूप देवोंके जो ] एक सौ आठ वृक्ष हैं वे आठ ही दिशाओं में स्थित हैं ।। १६६ ।। पश्चिम-उत्तर ( वायव्य ) कोणमें, उत्तर भागमें और पूर्व-उत्तर ( ईशान ) दिशामें सामानिक देवोंके चार हजार मणिमय वृक्ष है ॥ १६७ ॥ चार अम्र देवियोंके उन्नत चार वृक्ष चारों ही दिशाओंमें स्थित हैं। इन सब वृक्षों पर प्रासाद होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ १६८ ॥ सभी प्रासादों में सुन्दर रूपसे सम्पन्न जिनप्रतिमायें हैं। ये सब प्रतिमायें, से संयुक्त होती हैं ।। १६९ ।। उन उत्तरकुरु और होते हैं वे तीन कोश ऊंचे और उत्तम लक्षण व सिंहासन, तीन छत्र एवं भामण्डल क्षेत्रोंमें जो मनुष्य उत्पन्न युक्त होते हैं ॥ १७० ॥ वे मनुष्य तीन पल्पोपम प्रमाण आयुसे युक्त होते हुए तीन दिवसमें भोजन करते हैं । इनका अमृतमय उत्तम आहार बेरके बराबर कहा गया है ॥ १७१ ॥ युगल युगल रूपसे उत्पन्न हुए वे सच स्त्री व पुरुष लिंगसे युक्त होते है । वहाँ होता । इसी प्रकार तिथेच भी वहाँ उक्त दो लिंगोसे ही संयुक्त हैं ॥ भूमिमें उत्पन्न होकर उत्तम पात्रको दान देते हैं वे मरकर भोगभूमिमें नपुंसक वेद नहीं १७२ ॥ जो कर्म मनुष्य उत्पन्न होते अनुमोदना से हे ॥ १७३ ॥ मिथ्यात्व मावके साथ तिर्यच आयुको बांधनेत्राले मनुष्य दानकी कुरु क्षेत्रों में तिथंच होते हैं || १७४ ॥ वे सब स्त्री-पुरुषों के समूह तथा तिथंच भी सुन्दर स्वरवाले, उत्तम रूपसे युक्त, मन्दकषायी और पापबुद्धिसे रहित होते हैं, ऐसा जानना चाहिये १श डंग २ प विदिं दिवसे ते इ भुर्जति, व बिर्हि तिवसे तें दु लुब्जति. २ ज श हूं. Jain Education International देवकुरु व्यंजनोंसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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