SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संपादकीय हमें आशा करना चाहिये कि इस दृष्टिकोणसे न केवल हमारे इस उपलब्ध साहित्यके अध्ययनका प्रसार होगा, किन्तु जो साहित्य अभी भी प्राचीन भंडारों और मंदिरोंकी अंधेरी कोठरियोंमें बन्द पड़ा है उमेः प्रकाशमें लानेकी ओर भी अधिक ध्यान दिया जायगा । भारतीय संस्कृतिको अभी भी अपना उचित स्थान प्राप्त करना है। _अन्तमें हम कृतज्ञतापूर्वक उन सब संस्थाओं और व्यक्तियोंके प्रति अपना ऋण स्वीकार करते हैं, जिन्होंने किसी न किसी प्रकार इस सम्पादनमें अपना सहयोग प्रदान करने की कृपा की है। विशेषतः संवके टूस्ट व व्यवस्थापक मंडलके सदस्य इस ओर उत्साह और अभिरुचिके लिये हमारे धन्यवादके पात्र हैं। जिन्होंने हमें अपनी हस्तलिखित प्रतियाँ उधार दी और जिन विद्वानोंने अपने परामर्श आदि द्वारा हमें उपकृत किया उन सबका हम बहुत आभार मानते हैं । सोलापूर ५-१-५८ सम्पादक, ही. ला. जैन आ. ने. उपाध्ये For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy