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________________ - ३.२० ] तदिओ उद्देसो [ ३३ वणयपरियरिया णाणाविहतोरणेहिं कयसोदा । बहुकप्परुक्खाणिवहा सुगंध गंधुदुदो रम्मा ॥ ११ लवली लवंग डरा चंपय मंदारबउळ गंधड्डा । पुण्णागणागणिवद्दा अद्दमुत्तलया उलसिरीयां ॥ १२ कप्पूरणियर रुक्खा असे यफणसंबजं बिरसणाही । तालदुमणालिणिव कयलीहिंतालसंछण्णा ॥ १३ बहुकुसुमरेणुपिंजल अलि उल गिज्जय महुरसद्दाला । पवण्त्रसचलिपपलवपायवणयंत अहिरामा ॥ १४ भूधरपमाणदीहा बेगाउद विस्थढा समुद्दिट्ठा | वरभूइराण होंति हु वणसंडा उहयपासेसु ॥ १५ तद् य महाहिमवंतो अज्जुणवण्णो फुरंतमणिणिवहो । रुप्पियसेलो णमो रुपमभो रयणसंछष्णो ॥ १६ पणाला भवगाहा बे वि जगा बेसदा समुत्तुंगा । वादालसदा विउलाँ दसुत्तरा दसकला अधिया ॥ १७ चउत्तरि छच्च सया सोलसभागा हवंति णिद्दिट्ठा | सत्तत्तीससहस्सा जहण्ण आयाम सेलाणं ॥ १८ इगितीला णव य सदा छच्चैव कला हर्वति णिद्दिट्ठा । तेवणं च सहस्सा उक्कस्सायाम सेलाणं ॥ १९ दस चैव कला या चत्ताला सत्त जोगणसदाणि । भट्ठत्तीससहस्सा जहण्णघणुपट्ट सेलाणं ॥ २० इन उत्तम पर्वतों के उभय पार्श्वभागों में वनवेदिय से वेष्टित, नाना प्रकारके तोरणोंसे शोभायमान, बहुतसे कल्पवृक्षोंके समूहोंसे सहित, सुगंध गंधसे व्याप्त, रमणीय, प्रचुर लवली एवं लवंग वृक्षों सहित चम्पक, मन्दार एवं वकुलकी गंध से व्याप्तः पुन्नाग एवं नाग वृक्षोंके समूह से सहित, अतिमुक्त लताओं से व्याप्त शोभासे सम्पन्न, कर्पूर वृक्षों के समूह से संयुक्त; अशोक, पनस, आम्र एवं जंबीर वृक्षों से सनाथ; ताल द्रुम व नाली ( एक लता ) के समूहों से सहित, कदली व हिंताल वृक्षोंसे आच्छन्न, बहुतसे पुष्पोंकी धूलिसे पीतवर्ण हुए भ्रमरों के समूइसे किये जानेवाले मधुर गान (गुंजार ) से शब्दायमान, वायुसे प्रेरित होकर चंचलताको प्राप्त हुए पत्तावाले वृक्षों के मधुर नाचसे अभिराम, तथा पर्वतके बराबर लम्बे और दो कोश विस्तृत ऐसे वनखण्ड कहे गये हैं ॥११- १५|| महाहिमवान् पर्वत प्रकाशमान मणियों के समूइसे युक्त, श्वेतवर्ण तथा रत्नोंसे व्याप्त रुक्मि पर्वत रजतमय जानना चाहिये ॥ १६ ॥ दोनों ही पर्वत पचास योजन अवगाइसे युक्त, दो सौ योजन ऊंचे और दश कला अधिक ब्यालीस सौ दश योजन ( ४२१०१ ) प्रमाण विस्तृत हैं ॥ १७ ॥ इन शैलोकी जघन्य लम्बाई सैंतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन और सोलह भाग ( ३७६७४६६ ) प्रमाण कही गई है || १८ | उक्त शैलोंकी उत्कृष्ट लम्बाई तिरेपन हजार नौ सौ इकतीस योजन और छह कला ( ५३९३१६ ) प्रमाण कही गई है ॥ १९॥ उक्त शैलेंाका जघन्य धनुत्रपृष्ठ अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन और दश कला (१८७४०६९) प्रमाण जानना चाहिये ॥ २० ॥ उक्त शैलोका उत्कृष्ट धनुषपृष्ठ सता १ उ सुगंधुगंधुधुद्दा, व सुगंधागंधुद्धदा. २ उश लयाउलसिरिया. ३ प जंविरणाहा, ब जांवरणार. ४ ब सालदुमा सालिणिवह ५ ब गिज्जंति, ६ उ श णेये ऊ रुप्पमओ ७ प ब विलुला. ८ उश अविया. जं. दी. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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