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________________ जंबूदीवपण्णचिकी प्रस्तावना यहां उल्लेखनीय है कि तिलोयपण्णति की उपर्युक्त शलाका निष्ठापन विधि से मो राशि प्राप्त होती है वह उपर्युक्त तीसरी बार वर्गित सम्वर्गित राशि से कई कदम ( steps ) आगे जाकर प्राप्य है । इस प्रकार वीरसेन तथा यतिवृषभ की इस विषयक निरूपणा (treatment) भिन्न भिन्न है जिससे परिकलित औपचारिक असंख्यात एवं औपचारिक अनन्त की अर्हाए भिन्न प्राप्त होती है। यह तथ्य ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ग्रंथकार कहते हैं कि इतने पर भी उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात प्राप्त नहीं होता। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, लोकाकाश और एक बीव; इन चारों की प्रदेश (Spatial Points) संख्या लोकाकाश में स्थित प्रदेशों की गणात्मक संख्या प्रमाण है। प्रत्येक शरीर और बादर प्रतिष्ठित राशियां (अप्रतिष्ठित प्रत्येक राशि और प्रतिष्ठित प्रत्येक राशि) दोनों क्रमशः असंख्यात लोक प्रमाण है। इन छहों असंख्यात राशियों को T में मिलाकर प्राप्त योग से पहिले के समान तीन बार वर्गित सम्वर्गित राशि प्राप्त करते हैं। फिर भी, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात राशि उत्पन्न नहीं होती। मान लो उपर्युक्त क्रिया करने पर U राशि उत्पन्न होती है। इस तरह प्राप्त U राशि में स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाभ्यवसायस्थान, मन, वचन, काय योगों के अविभागप्रतिच्छेद और उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समय', इन राशियों को मिलाकर पूर्व के ही समान तीन बार वर्गित सम्बनित करने पर जो राशि V उत्पन्न होती है वह बघन्य परीतअनंत (lpj) प्रमाण संख्या होती है। इसमें से १ घटाने पर उत्कृष्ठ असंख्यातासंख्यात प्रमाण संख्या प्राप्त होती है। प्रतीक रूप से । lpj%Aau+१=v+१ और lpu>lpm>lpj इसके पश्चात् बघन्य युक्तानन्त प्राप्त करते हैं। घात बढ़ाना और मूल निकालना हैं। ये सभी क्रियाएं प्राचीन काल में ज्ञात थीं। मूल निकालने की क्रिया से अपरिमेय संख्याओं का तथा ऋणात्मक संख्याओं के मूल निकालने से काल्पनिक संख्याओं का आविष्कार हुआ। जैनाचार्यों ने शलाकात्रय निष्ठापन विधि से तथा उपधारित असंख्यात राशियों के योग से ऐसी संख्याओं को निकालने का प्रयत्न किया जिन्हें उन्होंने असंख्यात संशा दी. तथा उपधारित अनन्त राशियों के मिश्रण द्वारा प्राप्त राशियों से प्राप्त प्रमाण संख्याओं को अनन्त संज्ञा दी- अनन्त अर्थात् जिसे उत्तरोत्तर गिनकर अथवा व्यय कर या एक अथवा संख्यात अलग कर कभी भी समाप्त न किया जा सके। १ "The biggest unit of time is the Maha-kalpa ( महाकल्प ) made up of two aeons Avgarpni and Utsarpni, each consisting of 4134526303082031777496121920000000000000000000000000000000000000000000000. 0000 ( 77 digits ) solar years. (The Brahm Kalpa of the Hind us also consits of 77 digits but the digits do not agree )", Cosmology Old and New, Page 231. धर्म द्रव्य के प्रदेश असंख्यात, अधर्म द्रव्य के प्रदेश असंख्यात तथा उस एक जीव के (बो केवलीसमुद्घात के समय सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है) प्रदेश भी असंख्यात माने गये हैं। लोक के प्रदेश असंख्यात है। असंख्यात लोक प्रमाण का अर्थ लोक के प्रदेशों की गणात्मक संख्या असंख्यात राशि की असंख्यातगुनी राशि । प्रत्येक शरीर और बादरप्रतिष्ठित जीवों को Souls in ordinary vegetation और Souls in vegetable parasitio groups कहा जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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