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१८)
जंबूदीवपण्णी
[१.१५..
पणमय वरसुवाग चालीसवणुप्पमाणविरिषण्णो| भारचमंडळणिभो मसीविषणुउण्णमो दियो । बरबेदिनपरिखिचडगोठरमंखिए परमरम्मै | दिग्बवणसंग्जुसे गंगादेवी व वसई " मिणपडिमासंकणो भवणीवरि तुंगकूडसिहरम्मि। पणुवीसविस्थडा सा गंगाधारा वहिं पह ॥ १६२ वरदीवा रणगा कुंडविठलपासादा | दुगुणा दुगुणा या णिसधो ति धराधको जाम ॥ ॥
कोसा मासटा पणवीस सर दुमद्धपंचसदा। गंगादियकुंडाणं विष्णेया बोयणा होति ॥ १५४ भर सोला बक्षीसा उसट्ठा जोयणा हवे दीवा । दस वीसा चालीसा मसीदि तुंगा वहा सेला ॥ ५५ पत्तारि भट्ट सोलस बत्तीसा विस्था य मूले सु । दोण्णि चतुरट्ट सोकस मोसु इति सेवाणं ॥ १॥ एप दुप चदुर भट्ट य विस्थारा हति तुगसिहरेसु । सरिइंडणगाण तहा णिहिट्ठा होति णियमेण ॥ १. पणुवीसा पपणासा जोयणसद सदा समुष्टिा । गंगादीसरियाण या धारा हवे हेदा ॥ १५८ जोयणसदेक्क ये घट हिमकुंदमुणाकसंखसंकासा । दीहा धारावरणा गंगादीणं सरीणं तु. १६९. सम्वे वि वेदिणिवहा वरवोरणमंदिया परमरम्मा । पवरम्छरेहि मरिया मोरयरूवसाराहि ॥ १७.
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सहश उसका रत्नमय उत्तम दिव्य द्वार चालीस धनुष प्रमाण विस्तीर्ण और अस्सी धनुष उन्नत है ॥ १६०॥ उत्तम वेदीसे वेष्टित, चार गोपुरोसे मण्डित और दिव्य बनखण्डोंसे युक्त उस अतिशय रमणीय प्रासादमें गंगादेवी निवास करती है ॥१५१ ॥ वहाँ भवनके ऊपर स्थित जिनप्रतिमासे युक्त उन्नत कुटशिखरपर वह गंगानदीकी धारा पच्चीस योजन विस्तृत होकर गिरती है ॥ १६२॥ निषधपर्वत पर्यन्त उत्तम कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डनग
और विशाल कुण्डप्रासाद, ये सब दूने दूने जानने चाहिये ॥ १६३ ।। उक्त गंगादिक कुडाका विस्तार क्रमसे बासठ योजन दो कोश, एक सौ पच्चीम योजन, दो सौ व अर्ध सौ (बदाई सौ) तथा पांच सौ योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ १६४॥ कुण्डस्य दीपोका विस्तार क्रमशः पाठ, सोलह, बत्तीस और चौंसठ योजना तथा उनमें स्थित शैलेकी उंचाई क्रमशः दश, बीस, चालीस और अस्सी योजन प्रमाण है ॥ १६५॥ उक्त शलाका मूलविस्तार कमसे चार, आठ, सोलह और बत्तीस योजन; तथा मध्यविस्तार दो, चार, आठ और सोलह योजन है ॥ १९६॥ नदीकुण्डस्थ उक्त पर्वतोंका विस्तार उन्नत शिखरोंपर नियमसे एक, दो, चार और आठ योजन प्रमाण कहा गया है ॥ १६७ ॥ गंगादिक नदियोंकी धाराका विस्तार क्रपसे पच्चीस, पचास, सौ और दो सौ योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥ १६८॥ हिम, कुन्दपुष्प, मृणाल और शंख जैसे वर्णवाले गंगादिक नदियोंके धारापतनोंकी दीर्घता उत्तरोत्तर एक सौ, दो सौ और चार सौ योजन प्रमाण है ॥१६९ ॥ नदीकुण्डस्थ पर्वतोंके ऊपर स्थित सब ही प्रासाद वेदीसमूहसे सहित, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय,
डश परिखिये. १उशतहि वसइ. शतरंग. ४उश णिसथो विपराचलो जामा, पणिसधधराचको बाम. ५उश सदं अदसदा, बसदंतपंचसदा. उ एय दुप चहुबा , श एयपस्य बबुबह. .प.बस. उपाश पवरमहि.
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