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________________ -१. १५९) सदिओ उद्देसो [१७ छज्जोयण सक्कोसा पणालिया विस्थडा मुणेयम्वा । मायामेण य या बे कोसा तेत्तिया बहला ॥ १५. सिंगमुहकण्णजीहाणयणाभूयादिएहि गोसरिसा । वसह त्ति तेण णामा णाणामणिरयणपरिणामा ॥१५॥ तत्तो दुगुणा दुगुणा पणालिया वसहरूवसठाणा । ताव गया णायब्वा जाव दुणिसहगिरिसिहरे ॥ १५२ तत्तो मन्द्वद्धखया वज्जपणालीण रयणणिवहाणं । विक्खभा मायामा बहलपमाणा समुट्टिा ॥ १५५ गंगा जम्हि दु परिदा सधरादो तहि हवे कुंडे' । दस मौयणावगाहं धरणियले सव्वदो वर्ल्ड' ॥ ५४ सरिमुखदसगुणविउला तस्स दु बहुदेसमज्मभागम्मि । दीवो रयणविचिचो विस्थिण्णो जोयणा मट्ठ ॥ १५५ बज्ममयमहादीवे बेकोससमुट्ठिदे सिदजलादो । तम्हि बहुमजनभागे णगोतमो होइ णिरिहो ॥ १५६ दसजायणउन्धिद्धों' मूले पत्तारि जायणायामो । बे जोयश मज्मम्मि य उरि एगो समुदिट्ठी ।। १५७ तस्स दु मज्मे दिग्वो पासादो कणरयणपरिणामो । मणिगणजलतखंभो गंगाकूडो ति णामेण ॥ १५८ बेधणुसहस्सतुंगो भट्टादिरजा धणि विस्थिण्णो । णचंपयगंधही संपुण्णमिर्यककिरणोहो' ॥ ५९ नालीका विस्तार छह योजन एक कोश, आयाम दो कोश और इतना ही उसका बाहल्य मी जानना चाहिये ॥१५०॥ नाना मणियों एवं रत्नों के परिणाम रूप यह नाली चूंकि सींग, मुख, कान, जिला, नयन और भ्रू आदिकोंसे गौके सदृश है, इस कारण उसका नाम 'वृषभ ' है ॥१५१ ॥ इसके आगे निषध पर्वत पर्यन्त उक्त वृषभाकार नालीका विस्तारादि उत्तरोत्तर दुगुणा दुगुणा जानना चाहिये ॥ १५२ ॥ निषध पर्वतसे आगे रस्नसमूहसे निर्मित उक्त नालियों के विष्कम्म, आयाम और बाहल्यका प्रमाण उत्तरोत्तर आधा आधा हीन कहा गया है ॥ १५३ ॥ गंगानदी हिमवान् पर्वतसे जहां गिरी है वहां पृथ्वीतलपर सव ओरसे गोल दश योजन गहरा कुण्ड है ॥१५४॥ गंगा नदीकी धारासे दशगुणे (६४१०% १२३ यो.) विस्तारवाले उक्त कुण्डके ठीक बीचमें रत्नोंसे विचित्र आठ योजन विस्तृत द्वीप है ॥ १५५ ॥ धवक जलसे ऊपर दो कोश ऊंचे उस महा द्वीपके बहुमध्य भागमें उत्तम वज्रमय पर्वत कहा गया है ॥ १५६ ॥ यह पर्वत दश योजन ऊंचा और मूलमें चार योजन, मध्यमें दो योजन तथा ऊपर एक योजन आयाम ( विस्तार ) वाला कहा गया है ॥१५७ ॥ उसके मध्य भागमें सुवर्ण व रत्नोंके परिणाम स्वरूप एवं मणिगोंसे प्रकाशमान खम्भोंसे सहित गंगाकूट नामक दिव्य प्रासाद है ॥ १५८ ॥ नवीन चम्पककी गन्धसे व्याप्त और सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान किरणसमूइसे सहित वह प्रासाद दो हजार धनुष ऊंचा व बदाई (हजार ] धनुष विस्तीर्ण है [ति. प. १-२२५ और त्रि. सा. ५८८ में इसका विस्तार मूलमें ३००० मध्यमें २००० और ऊपर १००० धनुष प्रमाण बतलाया गया है ] ॥ १५९॥ सूर्यमण्डलके ............-. १उ कूडा, पब कुंडगे, श कूदं. १ उप वढं, पब बटु ३ प समद्विदो मिद', श कोससमविदे सिद. ४ उ उवितो, श विरहो.५श जोयणायामे. शते. पप किरणेहो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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