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________________ -३. १८०] तदिओ उद्देसो [ ४९ शिकणोदिरामा अच्छेरयरूवसारसंठाण | पुप्फोवयारपउरा वंदणमालुज्जलसिरीया ॥ १७१ णिवडंतसलिलपउरा सियचामरहारतारसंकासा। लंबंतरयणमाला मणिकमलकदरचणसणाहा ॥ १७२ घंटोकिंकिणणिवहा जलधारापार्यजणियझंकारा । जिणसिद्धबिणिवहा सरिकुंडणगाण पासाया ॥१७॥ णीसरिदूण य गंगा कुंडदुवारेण दक्षिणाभिमुखी । वेदवगुहामझे पुव्वसमुई अणुप्पत्ता ॥ १७४ मणिमंख्यिाण णेया वस्जिदमसारगलमइयाणं । वरतोरणार्ण हेट्टा" बिलेण पइसंति सरियाओ ॥ १७५ तेणउदिजोयणाई उत्तंगो विविहरयणसंछण्णो । तिपणेव हवे कोसा परिसंखा तस्स जाणीहि ॥ १७६ बे कोसा बासट्टा वित्थारो तोरणे समुद्दिट्टो । बे कोपा अवगाढ। ये कोसा" होइ बहुलेण ॥ १७७ अवसेसतोरणाणं णिम्मलमणिकणयरयणणिवहाणं । दुगुणा दुगुणा णेया विस्थारो जाम सीदोदा ॥ १७८ गंगासिंधूतोरण बासट्ठी जोयणा दुबे कोसा । भरहम्मि समुद्दिट्ठा लवणसमुद्दप्पवेसेसु ॥ १७९ रोहारोहिदतोरण पणुवीस सदाणि जोयणपमाणा। हेमवदे विस्थिपणा सायरसलिलप्पवेसेस ॥ १८० आश्चर्यजनक उत्तम रूपवाली अप्सराओंसे परिपूर्ण, सद। मनको रमानेवाले, आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूप व आकृतिसे सहित, प्रचुर पुष्पों के उपचारसे सहित, वन्दनमालाओंसे उज्ज्वल शोभाको प्राप्त, गिरते हुए प्रचुर जलसे संयुक्त; धवल चामर, हार व मोती (या तारा) के सदृश; लम्बायमान रत्नमालाओंसे युक्त, मणिमय कमलोंसे की गई पूजासे सनाय, घंटा व किंकिणियोंके समूहरो सहित, जलधाराके पातसे उत्पन्न हुए झंकारसे परिपूर्ण, तथा जिन एवं सिद्धोंकी प्रतिमाओं के समूइसे युक्त हैं ॥ १७०-१७३ ॥ गंगानदी गंगाकुण्डद्वारसे निकलकर दक्षिणाभिमुख होती हुई वैताढ्य पर्वतकी गुफाके मध्यमेंसे पूर्व समुद्रको प्राप्त होती है ॥ १७४ ॥ गंगादिक नदियां मणियोंसे मण्डित और वजं, इन्द्र [- नील ] एवं मसारगल्ल ( एक रत्न जाति ) से निर्मित उत्तम तारणों के नीचे बिलमेंसे समुद्रमें प्रवेश करती हैं ॥ १७५ ॥ विविध रस्नोसे व्याप्त उस तोरणकी उंचाईका प्रमाण तेरानबै योजन और तीन कोश जानना चाहिये ॥ १७६ ॥ उक्त तोरणका विस्तार बासठ योजनादकोशः अवगाह दो कोश और बाहल्य दो कोश प्रमाण है ॥१७७॥ सीतो पर्यन्त निमला माण, सुवर्ण एवं रत्नों के समूह रूप सेस तोरणों का विस्तार उत्तरोत्तर दूना दूना जानना चहिय क्षेत्रमें गंगा और सिन्धुके तोरण लंधणसमुक प्रवेशम बासष्ठे योजन और ना कोश प्रमाण विस्तीर्ण कहे, 'म । हमवतक्षत्र में रोहित व शहितास्या के तारण वर्णसमुहक प्रवेशम एक सपञ्चसि योजन प्रमणि विस्तीर्ण हार क्षत्री हीरत्व हाट FPSE FIER FM ipsis FTCT GISIES FIFFE 5146 FFP FPOFIE SEE FITS ITrig. TE TEET DEFri ||19-0080bs १उपबश परछरेहि.२उव्वंटा,श वग. ३उर्श धारापाय, पंब धाराथांय."उश सिरि. ५ ब अणुपत्ता, श अणुप्पत्त. ६ प तोरणेण, ब तोरणण. ७ उ श हिवा. ८ श परियाओ. ९ उश द्रिोणारं चिहि, मायापिविष्टपबद तारको शाबिछा सौदोहा. स्म शासपुदायसह... IF माघ ३ .15TE OPE, जै. दी. ७. की EPFFEमगीली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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