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________________ ५० ] जंबूदीवपण्णत्ती [ १. १८१ हरिहरिकता तोरण बेसवण्णासजेोयणपमाणा | हरिवरिले वित्यिण्णा लवण समुद्दपत्रेसेसु || १८१ सीदासीदोदाणं तोरणदारा हवंति विश्थिण्णा । पंचेव जोयणसदा विदेहमज्झग्मि लवणंते ॥ १८२ I लंच तरयणपरा मुत्तादामेहि मंडिया दिव्वा । णाणापडायमाला पवणपणच्चंत साहाहिं ॥ १८३ चामरघंटा किंकिणिवं देणमालाहि सोहिया पत्ररा | भिंगार कलस दप्पणचामीयर कमलकयसोदा || १८४ मणिसाल है जिगपवर कणयमयसीद्दवालयसणाद्दा | वरचामरादिसदिया जिणपडिदविहूसिया रम्मा ॥ १८५ वज्जिदणील मरगय कक्कयणपुस्स रागपरिणामा कंचणपत्रालणिवा तोरणद्वारा समुद्दिट्ठा ॥ १८६ मे इलकलावै मणिगणकरणिय र विभिणअंधयाराभो । कडि सुत्तक डकुंडलवरहारविहूसियंगीभो ॥ १८७ लाय पणरूत्र जोवण बहुगुणसंदोह मुव्वतीओ। कलर डिदमिदुपजंपियदसणुज्जलचंदधवलामो ॥ १८८ दिणयरकरणियरायविभिण्णसयवत्तगब्भगउराओ । सरसमय मेघविरहिय संपुष्णनियं कवयणाभो ॥ १८९ उष्णयपीणपक्षेोहर उर्वरिविरायंतचारुद्वाराभो । ससिदलिदै कुमुदकुवलय वियसियसययत्तणेत्तामो ॥ १९० भ्रमेण होंति ताओ देवीओ तोरणाण रम्माओ । मणिमयपासादेसु य णाणामणिविष्फुरंत किरणेसु ॥ १९१ कान्ता के तोरण लवण समुद्र के प्रवेशमें दो सौ पचास योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं ॥ १८९ ॥ विदेह के मध्य में सीता-सीतोदा के तोरणद्वार लवणसमुद्र के समीप पांच सौ योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं ॥ १८२ ॥ उक्त तोरणद्वार लम्बायमान प्रचुर रत्नोंसे सहित, मुक्तामालाओं से मण्डित, दिव्य, पवन से प्रेरित होकर आकाशमें नाचनेवाली नाना पताकाओं के समूहों और चामर, घंटा, किंकिणी व वन्दनवारोंसे शोभित; श्रेष्ठ; भृंगार, कलश, दर्पण व सुवर्णकमलों से शोभायमान; मणिमय शालभंजिका (पुतली) एवं श्रेष्ठ सुवर्णमय सिंह बालकों से सनाथ, उत्तम चामररादिकोंसे सहित जिनप्रतिमाओंसे विभूषित, रमणीय, वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतन एवं पुखराज मणियों के परिणाम रूप और सुवर्ण एवं मूगाओंके समूह से युक्त कहे गये हैं ॥ १८३-१८६ ॥ इन तोरणोंपर स्थित नाना मणियों का प्रकाशमान किरणोंसे सहित मणिमय प्रासादों में मेखलाकलाप में जड़ी हुई मणियों के किरणसमूह से अन्धकारको नष्ट करनेवाली; कटिसूत्र, कटक, कुण्डल एवं उत्तम हारसे विभूषित शरीरखाली; लावण्यमय रूप, यौवन एवं बहुतसे गुणोंके समुदायको धारण करनेवाली; कलरटित व मृदु प्रजल्पनमें [ प्रगट होनेवाले ] दांतोंसे उज्ज्वल एवं चन्द्रके समान धवल, सूर्यके किरणसमूहसे आहत होकर विकासको प्राप्त हुए कमलके मध्य भागके समान गौर वर्णवाली, शरत्कालीन मेघोंसे रहित सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली, उन्नत एवं स्थूल पयोधरोंके ऊपर विराजमान सुन्दर हारसे अलंकृत, तथा चन्द्रसे विकासको प्राप्त हुए कुमुद, कुवलय व विकसित कमलके समान नेत्रोंवाली वे रमणीय देवियां धर्म के प्रभावसे उत्पन्न होती हैं ॥ १८७ -१९१ ॥ गंगा, रोहित्, इरित्, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता, १ ब सोहाहिं. २ उ किंकिण, शकिंकण. ३ उ प ब श साठ इंजिगमवर कणयलया. ४ उपबश चामरराहि. ५ उ कलाभ, श कलाण. ६ उ विहिण, श विहिण. ७ उ शकलरिमिदमहु, प ब काकेरिडिदमिह° ८ उश उबर ९ उश दनिद. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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