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जंबूदीवपण्णची
[१३. १२२
बेरुलियरयणसंधी पवाममिदुपल्लवपरसाहो । मरगयपत्तच्छण्णो असोयबरपायको दिग्दो ॥ १२२ मंदारकुंदकुवलयणीलुप्पलबउलकमलणिवहा । गुंजंतमत्तमयर णिवरह कुसुमाण वरखुट्ठी ॥ १२॥ सत्तसयकुमासहियभट्टारसदेसमाससंजुत्ता । दिब्वमोहरवाणी मिट्ठिा कोयणाहस्स ॥ १२. कडयकडिसुत्तकुंडलमहादिविहसिदा परमस्वा। जाक्खिदा जिणणाईचामरणिवहेहि विज्जति ॥ १२५ फलिहसिलापरिघडियं कंचणमणिरयणजालविछुरियं । सिंहासणं महग्र्ष सपायपी मणभिरामं ॥ १२५ सयल घणतिमिरदलणं दिणयरसयकारिकिरणसंकासं । भामंडलं विरायह सिहयणणाहस्स णायम्वा ॥ १२. पवळपवणामिनाहयपक्खुमियसमुदघोसघणसई । इंदुभिरवं मणहरं बहुविहसदेहि' संजुत्तं ॥ १९८ वेरुलियविमलदर मुत्तामणिहेमदामलं बतं । छत्तत्तयं विरायइ तिहुपणणाहस्स रमणीयं ॥ १२९ एदेहि बाहिरेहि य भम्भता गुणगणेहि संजुत्तो । सो होदि देवदेवो जो मुक्को कम्मकलुसादो' ॥ १. मोहणिकम्मरस खए साइयसम्म होइ जीवस्स । तह य जहाखादं पुण चारित्तं गिम्मलं तस्स ॥ ११ णाणावरणस्स खए होह भणतं तु केवलं गाणं । विदियावरणस्स खए केवलवरदसणं होई ॥ १३२
रत्नमय स्कन्धसे सहित, प्रवाल रूप मृदु पल्लवोंसे व्याप्त ऐसी उत्तम शाखाओंसे सहित और मरकतमय पत्तोंसे आच्छन्न. ऐसा दिव्य उत्तम अशोकवृक्ष मुशोभित होता है ॥ १२२ ।। मन्दार, कुन्द, कुवलय, नीलोत्पल, बंकुल और कमलोंके समूहोंसे गूंजते हुए मत्त भ्रमरोसे युक्त कुसुमोकी उत्तम वृष्टि गिरती है ॥ १२३ ॥ तीन लोकके प्रभु जिनेन्द्र देवकी दिव्य एवं मनोहर वाणी ( दिव्यध्वनि ) सात सौ कुभाषाओं तथा अठारह देशभाषाओंसे संयुक्त निर्दिष्ट की गई है ॥ १२४ ॥ कटक, कटिसूत्र, कुण्डल एवं मुकुट आदिसे विभूषित और अतिशय सुन्दर रूपसे संयुक्त ऐसे यशेन्द्र चामरसमूहोंसे जिनेन्द्रदेवको हवा करते हैं ॥ १२५।। सुवर्ण, मणि एवं रत्नों के समूहसे खचित और पादपीठसे सहित ऐसा मणिमय शिलाके ऊपर रचा गया महाघ सिंहासन मनोहर प्रतीत होता है ।। १२६ ॥ समस्त घने अन्धकारको नष्ट करनेवाला एवं सौ करोड़ सूयों की किरणों के सदृश तेजसे संयुक्त ऐसा त्रिलोकीनाथ का भामण्डल सुशोभित होता है ॥ १२७ ॥ प्रबल पवनसे ताड़ित होकर क्षोमको प्राप्त हुये समुद्र के निर्घोष अथवा मेषके समान शब्द करनेवाला एवं बहुत प्रकारके शब्दोंसे संयुक्त ऐसा दुंदुभीका शब्द मनोहर होता है. ॥ १२८ ॥ वैडूर्यमणिमय निर्मल दण्डसे युक्त और लटकती हुई मुक्ता, मणि एवं सुवर्णकी मालाओंसे सुशोभित ऐसे त्रिभुवनाथके रमणीय तीन छत्र विराजमान होते हैं। १२९ ॥ जो इन बाह्य गुणों [ प्रतिहार्यों ] एवं अभ्यन्तर गुणगोंसे संयुक्त तथा कर्म-मलसे रहित होता है वह देवोंका देव है ॥ १३० ।। मोहनीय (दर्शनमोहनीय ) कर्मका क्षय होनेपर जीवके क्षायिक सम्यक्त्व तथा [ चारित्रमोहनीयके क्षयसे ] उसके निर्मल यथाख्यात चरित्र होता है ॥ ११ ॥ ज्ञानावरणका क्षय होनेपर अनन्त केवटज्ञान और द्वितीय आवरण अर्थात् दर्शनावरणका क्षय
।श मणविसदेहि. २ पर कम्मककिसाबो. ३ इश सम्मत्त.
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